प्रोफ़ेसर की डायरी: उच्च शिक्षा में वैचारिकता का खेल

प्रोफ़ेसर की डायरी नोट: यह किताब की समीक्षा क़तई नहीं है। अख़िरकार पढ़ ली। फ़ेसबुक पर ही एक लेख भी देखा कि डॉo लक्ष्मण यादव की किताब प्रोफ़ेसर की डायरी इन दिनों अमेज़न पर सभी भारतीय भाषाओं में बेस्ट्सेलर बनी हुई है, इसमें कोई संदेह करने लायक़ बात है भी नहीं! डॉo लक्ष्मण को काफ़ी समय से सुन रहा हूँ। सामाजिक न्याय पर कई विद्वानों से 'परिचय' उन्हीं को देखकर हुआ है। किताब उन्हीं के संस्मरणों पर आधारित है इसलिए भाषा में कोई बनावटीपन नहीं, एकदम सहज और सरल। किताब का इंतज़ार इस कदर था कि कॉलेज के बैग में रखकर, थोड़ा-थोड़ा वहाँ भी पढ़ लिया; हालाँकि ये आदतन है कि अपने विषयों की किताबों,नोट्स, लैपटॉप के इतर बैग में हमेशा कोई 'विषय से इतर किताब’ हमेशा होती ही है।जहां समय मिला कुछ अंश ही पढ़ लिये। बहरहाल, किताब में हालाँकि जो उच्च शिक्षा के तिलिस्म से अंजान लोग है, उन्हें कई मायनों में यह किताब; जो डॉo लक्ष्मण की डायरी के नोट्स है; उन्हें देश-प्रदेश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में फल फूल रहें रहे जातिवाद, विरोधी स्वरों को दबाने, एक ही वैचारिकता को गोबर खाद देकर पालने और तार्किकता और वैच...