पिनाथ ट्रैक: बारिश, अँधेरा और जंगल
पिनाथ और बूढ़ा पिनाथ
कोई ऐसा ट्रैक किया कभी जिसको 'सर्वाइवल’ जैसा दर्ज़ा दिया जा सके?
कम से कम हमारे लिए यह सर्वाइवल ही था! किसी की भावनायें आहत हो तो वो आगे पढ़ने का जोखिम ना ही उठाये।
इस बार का ये ट्रैक चमोली के ब्रह्मताल और रूपकुंड को 'पैसे की बर्बादी' का तमग़ा देकर आख़िरकार बागेश्वर में ही कौसानी के नज़दीक पिनाथ तय किया गया।अपने कॉलेज के एक साथी-ललित जिसका मोबाइल नंबर आज भी फ़ोन में 'ललिया' के नाम से सेव है; के साथ दशहरे की छुट्टियों में 'कहीं चलेंगे' तय हुआ था।ललित का आना मतलब उसके साथ कामेश का वैसे ही होना जैसे ढेर सारी सब्ज़ी लेने पर मुफ़्त में धनिया और हरी मिर्च का आना। जैसे वो सब्जी का स्वाद बढ़ाते हैं, कामेश का साथ होना किसी भी यात्रा को हमारे लिए आसान और मज़ेदार दोनों बनाता है।ग़ौरतलब है कि ललित को हर ट्रैक मैं सुविधायें एसी फ़र्स्ट क्लास वाली चाहिए होती है, और चाहिए केमू की बस के किराए के ख़र्च पर! शायद ' हींग लगे ना फिटकरी और रंग भी चोखा’ वाली कहावत के उद्धरण ललित जैसों के लिए ही बने है।
बहरहाल, तो एक दो वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के बाद स्थान-समय तय हुआ कि कितने बजे मिलना है,क्या-क्या साथ में लाना है!
स्लीपिंग बैग को अनिवार्य की श्रेणी में रक्खा गया था क्योंकि रात वहीं गुज़ारी जानी थी।और ठेठ देसी तरीक़े से लकड़ी में मंदिर के ही कामचलाऊ बर्तनों में खाना बनाया जाना था।हालाँकि कौसानी से सामान लेते वक़्त साथियों द्वारा खाने में डिमांड ऐसी की गयी थी जैसे ट्रैक में नहीं हमलोग अनंत अंबानी की शादी में जा रहे हों!
कौसानी में अलसुबह 11 बजे मिलना मुक़र्रर हुआ।उम्मीद ये थी कि यहाँ से अनिल और मैं और अल्मोड़ा से ललित और कामेश ही है।पर अचानक से ललित के छोटे भाई 'मंटू' का भी आगमन तय हुआ।मंटू ऐसी हसोढ़ प्रकृति का है कि आप उसे बीते ज़माने के राजू श्रीवास्तव और इस दौर के आला दर्ज़ें के स्टैंडअप कॉमेडियन्स के खाँचे में रख सकते हैं।हम अल्मोड़ा में कॉलेज में पढ़ते थे जब मंटू अपने गाँव से अल्मोड़ा में नवीं कक्षा में पढ़ने आया था।उस दौर में वो मेरे झड़ते बालों का ख़ूब मज़ाक़ बनाया करता था और अब ये आलम है कि…मेरे सर पर जो थोड़ा बहुत बाल बचे हुए हैं उसके सर पर इसके आधे है! हम दोनों ही डॉ० बत्रा से लेकर ट्राया जैसों के सामने अपना बिगुल लिए खड़े हैं कि तुम कितना भी प्रचार कर लो पर तुम हमें अपने प्रचार के लिए इस जनम में तो उदाहरण के तौर पर हरगिज़ नहीं ले पाओगे।
कौसानी में बीच बाज़ार वो तीनो प्रकट हुए।और जिस साधन से वो 'भारत का स्विट्जरलैंड' कही जाने वाली इस जगह में नमूदार हुए थे वह खड़ी थी- कूड़ेदान के बिल्कुल बगल में।उसे देखकर अमोल पालेकर की फ़िल्मों की विंटेज कार याद आ रही थी।लाल रंग की कार जिसका रंग लाल कम और किसी सरकारी बिल्डिंग के शौचालय के किसी कोने में पान और गुटखा खाकर थूके हुए रंग का आभास ज़्यादा दे रहा था।इस रात और अगली सुबह के खाने का सामान और ज़रूरी चीजें लेकर हम दो अपनी मोटरसाइकिल पर और वो तीन अपनी कार से काटली की तरफ़ को निकल पड़े।काटली पहुचकर सबने तय किया कि खाना खाकर चढ़ाई की जाये।' दस मिनट में खाना तैयार है' कहने वाले दुकानदार ने आधे घंटे बाद सलाद की प्लेट टेबल पर रखी जिसमें प्याज़ के ढेर में कुछ खीरे के टुकड़े भी दिखे।औसत से भी नीचे खाने को सर्व ऐसे किया जा रहा था जैसे हम किसी महंगे होटल में बैठे हुए हों! कमाल की बात यह थी कि कैश किसी के पास नहीं था और नेटवर्क वहाँ आता नहीं है! और इस पर ललित का वेटर को 'और लाओ यार' और हमारी ओर देखकर ' क्या करूँ मेरी डाइट ही इतनी है' का राग ख़त्म नहीं हो रहा था।खाना खाने के बाद पेमेंट की बात जब आयी तो दुकानदार और हम एक दूसरे के सामने अपराधी जैसे खड़े थे।वो सामने वाली दुकान से वाईफाई लेकर उसी के उसमें पैसे डाल दो पर मामला सुलटा!
मंटू की विंटेज कार को जब मैंने पार्क करने के लिए चाभी माँगी तो उसके भीतर की 'तकनोलॉजिया' देखकर मैं गाड़ी चलाने वाले (मंटू) का मुरीद हो गया।खस्ताहाल सीटों के बीच गियर ऐसा था जैसे किसी छाते का हैंडल हो और हैंडब्रेक की स्प्रिंग अपना मुँह फाड़े आधी बाहर झूल रही थी।रियर मिरर अपनी ज़िंदगी की आख़िरी साँसे गिन रहे थे।कुल मिलाकर यह कार अपने विंटेज कहने पर ख़ुद ही शर्म से लाल हो रही थी।आखिरकर एक कोने में वह पार्क हुई।
काटली से ही पैदल चढ़ाई शुरू होती है।पिनाथ जाने के दो रास्ते हैं- एक है रुद्रधारी मंदिर होते हुए और दूसरा खड़ी चढ़ाई वाला।हमने दूसरा चुना।यह चढ़ाई लगभग 70 डिग्री की होगी। शुरुआती जंगल चीड़ का है।रास्ता ठीक बना हुआ है।घुमावदार मोड़ों से होते हुए हम लोग बतियाते और एक दूसरे का मज़ाक़ बनाते हुए उस चढ़ाई पर बढ़ रहे थे।क्योंकि सब अल्मोड़ा में रहे थे इसलिए कॉलेज के दिन भी याद करते हुए हम बढ़ रहे थे।आख़िरकार आधे रास्ते में चौरा पहुँचे जहाँ पर बोर्ड लगा हुआ था-काटली 2.5 Kms और पिनाकेश्वर मंदिर 2.5 Kms. यहाँ से अब असली चढ़ाई शुरू होती है।ये बिल्कुल सीधी चढ़ाई है।लगभग 80 डिग्री वाली यह एकदम खड़ी चढ़ाई है।चीड़ अब अलविदा कहने लगता है और इसकी जगह बुरांश और काफ़ल ले लेते है।यह चढ़ाई ख़त्म होते ही एक छोटा सा मंदिर आता है।मंदिर क्या जैसे हमारे पहाड़ों में 'थान' होते हैं। लोक देवता गोलू जैसी आकृति पत्थर पर उकेरी गयी थी।इसके बाद का रास्ता अच्छा है। मध्यम क़द के पेड़ और झाड़ियों के साथ आख़िर हम पिनाथ मंदिर में पहुँच चुके थे।
मंदिर परिसर में रहने के लिए काफ़ी धर्मशालाएँ है।कुछ छोटे छोटे मंदिर है।एक बड़ा मंदिर है जिसकी छत पर एक बिल्ली-तेंदुए और बाघ का मिश्रित जानवर बना हुआ है।दीवारों पर पत्थरों में ही मूर्तियां उकेरी गयी हैं और एक ही पत्थर को काटकर नंदी की बनी मूर्ति देखने लायक है।
काटली में दुकानदार ने कहा था कि वहाँ पर बर्तन वाले कमरे की चाभी 'महंत जी की मूर्ति' के नीचे बिछे कपड़े के नीचे मिल जाएगी।पर महंत जी के पूरे अंगवस्त्रों में भी टटोलने पर हमें कहीं चाभी नहीं मिली।महंत जी की निष्कलंक मूर्ति जैसे हमीं पर हंस रही थी! ख़ैर, क्योंकि कुछेक बर्तन हमें आस पास फेंके हुए दिख गये थे तो खाना बनाने के लिए हम बेफ़िक्र थे।परोसने के लिए हम अपने साथ डिस्पोज़ल लाए ही थे।एक व्यक्ति जो मंदिर में ही एक कक्ष में थे उनसे जब पानी के लिए पूछा तो उन्होंने सामने ' बारिश के इकट्ठा किए पानी के कुँए' की तरफ़ इशारा कर दिया! पानी ऐसा कि जानवर भी उस से मुँह फेर ले। उस समय 3:30 बज रहा था।उस 'देवतुल्य भलमानुस’ ने हमें नसीहत दी कि हमें 'बूढ़ा पिनाथ' चले जाना चाहिए। वहाँ ' दो बढ़िया साफ़ पानी के सिंटेक्स', चमचमाते बर्तन और रहने के लिए 'शानदार धर्मशाला’ है।अभी ना सही कल सुबह तो वहाँ भी जाना ही था।इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना अभी ही चल दिया जाये और उस आदमी ने हमें जो 'सोने का हिरन' दिखाया था उसे सोचकर हमारा दिल वैसे ही गार्डन हो रक्खा था।तो हम चल पड़े आगे के सफ़र की ओर।एक पहाड़ से दूसरा पहाड़ जितना कम दूर दिखता है होता उसके कई दूर है।यह भी ऐसा ही रहा।घने जंगलों और बारिश से फिसलन भरी ढलान पर हम लगातार चढ़ते चढ़ते एक ऐसी जगह पर पहुँचे जहाँ पर हमने सोचा कि बस मंजिल आ गयी! पर हम पहुँचे ऐसी जगह पर जिसके आगे का रास्ता ग़ायब था।
हम एक हिलटॉप पर खड़े थे।आगे का कुछ नहीं पता पर सामने वाली पहाड़ी पर मंदिर दिख गया था।हिम्मत सबकी जवाब दे चुकी थी।पीने का पानी ख़त्म हो चुका था।गले सूख चुके थे।महसूस हो चुका था इससे आगे इस बार शायद कोई नहीं गया।आख़िरकर उस टॉप से एक एक कर जान हथेली में रखकर नीचे उतरे और आगे बढ़े।लगभग आधे घंटे बाद हम बूढ़ा पिनाथ में थे। जैसा नाम वैसी जगह!
चोटी पर लगभग वर्गाकार जगह में एक छोटा सा मंदिर और बगल में एक 'बूढ़ी धर्मशाला' जिसके अस्थि-पंजर दरकने को तैयार थे।उस टीले में उतनी ही जगह थी।एक तरफ़ की दीवार नीचे जा चुकी थी।अगर ठीक-ठाक बारिश हो गयी तो पूरी धर्मशाला भी जा सकती थी।बर्तन उसके अंदर बिखरे पड़े थे जिनके बीचो बीच इतना छेद था कि हाथ आर पार हो सके।पानी का अता पता नहीं और कमरा भीतर से ऐसा कि उसी के भीतर स्कूल के बच्चों से 'श्रमदान’ करवाकर पत्थर जमा किए गए हों!
कुल मिलाकर हम बेवक़ूफ़ बन चुके थे! नेवले जितने एक चूहे को उन पत्थरों के बीच देखकर अनिल ने कहा चलो वापस!
5:45 हो चुका था।सूरज ढल चुका था।अँधेरा छाने लगा था।क्षितिज के एक कोने में लंबी लाइट की क़तारें दिखने लगी थी।यह अल्मोड़ा शहर था, जो यहाँ से दिख रहा था।यह जगह लगभग 3200 मीटर की ऊँचाई पर रही होगी।जहाँ तक पहुँचने में हमारे पसीने छूटे थे अब वहाँ से अंधेरे में वापस जाना था।दो बिस्किट के पैकेट फटाफट अपने मुँह में उड़ेलकर हम वापस मुड़ गये।सबने तय किया कि इस घने जंगल में सब साथ चलेंगे।कोई आगे पीछे नहीं।तेज़ कदमों से आगे बढ़ने लगे।पैर दर्द करने लगे थे।अचानक मंटू जो सबसे आगे था, ठिठका!
"दीपक दा कोई गया यहाँ से अभी! कोई जानवर भागा!"
मैंने कहा होगा शायद काकड़ या घुरड़।
कुछ सेकंड में काकड़ का 'अलार्म कॉल' सुनाई दिया कुछ दूरी पर; वह कॉल जो सामान्यतः तब सुनाई देता है जब या तो काकड़ (barking deer) कहीं फँस जाये या आस पास वो बाघ/तेंदुए के होने की संभावना में अपने साथियों को आगाह करता है।प्राण हलक़ में अटके थे! चलना बदस्तूर जारी रखा।आख़िरकर लगभग 8:00 बजे वापस पिनाथ पहुँचे।मैंने तो जाते ही अपना स्लीपिंग बैग खोला और पसर गया एक कमरे के फ़र्श पर।बाक़ी लोग बाहर आग का इंतज़ाम करने लगे।
कुछ देर सुस्ताने के बाद जब बाहर गया तो कामेश तन-मन से आग जलाने की मुक़म्मल कोशिश में लगा था।एक पतीले में वही पानी जिससे जानवर भी मुँह फेरते उसी को हम उबालने के लिए आग पर चढ़ा दिए।क्योंकि कुछ देर पहले ही हल्की रिमझिम बारिश हुई थी इसलिए आग ठीक से जल नहीं रही थी उस पर गोया ये कि डिस्बैलेंस से पतीला लुढ़क गया!
वो तो पूरा नहीं पलटा, फिर क्या करते हम शायद ही सोच पाते!आख़िरकार वो पानी उबला जिसे अपने मफ़लर को ट्रिपल फोल्ड कर हमने अपनी नाक-भौं सिकोड़कर पीने लायक़ बनाया।फिर बनी लाल चाय।जिसमे पड़े अदरक ने उस पानी की 'महक' को कम किया।
अब रज़ामंदी इस बात पर हुई कि ज़्यादा नक़्सेबाज़ी के चक्कर में ना पड़कर केवल मैगी बनायी जाएगी।और अगली सुबह उठकर सीधे यहाँ से रफ़ूचक्कर होकर काटली पहुँचकर 'साफ़ पानी' से अपना गला तर किया जाएगा।आग जलाने में महंत जी की मूर्ति के चरणों में पड़ी रूई ने काफ़ी मदद की। मंदिर में 'उस देवतुल्य भलमानुस' को गलियाने का कोई फ़ायदा था नहीं जिसने हमें बूढ़ा पिनाथ के ख़्वाब दिखाए थे!
मैगी खाने के बाद और थोड़ी हँसी-ठिठोली के बाद सब अपने अपने स्लीपिंग बैग्स में दाख़िल हुए सिवाय कामेश के जो अपने लिए एक पतला कंबल लेकर आया था।और उसे ' टीशर्ट और निकर' में ही सोना था।कम से कम बीस बारी ललित ने 'यहां आने के लिए अपनी मति' को कोसा!
अगली सुबह उठकर सीधे चलने की हिम्मत नहीं हुई।दुबारा वही पानी लेकर फिर लाल चाय बनायी गयी।और उसके बाद ही उस जगह से रवानगी हुई।
तो ये पूरे वृत्तांत का हासिल ये कि एक तो अगर पिनाथ जाओ तो अपने साथ कम से कम 5-5 लीटर के दो पानी के कैन भी ढो के ले जायें और बूढ़ा पिनाथ अपने ही 'रिक्स' पर जायें।और कम से कम जायें भी तो उस समय कि वापस आने का भी वक़्त हो।
इस ट्रैक से वापस आकर जो काम मैंने ‘साफ़ पानी' पीने के बाद किया, वह था- गूगल पर रिव्यू लिखना ताकि जैसे हम वहाँ परेशान हुए बाक़ी ना हो।
अब याद करता हूँ तो उस समय के सूखे हुए गले और दर्द करते पैरों को सोचकर एक सिहरन ही दिलोदिमाग पर अनायास आ जाती है।
Photo Gallary
Padh ke maja aa gya. Aur ye maja usi ko aa skta hai jiske sath aise wakaye hue honge.
जवाब देंहटाएंये दिन में कभी नहीं भूल सकता, जान गले तक आ गई थी उस दिन तक😄😄😄
जवाब देंहटाएंमेरी कोई गलती नहीं मेरी खुराक ही उतनी हैं☺️😊😊
जवाब देंहटाएं😂😂😂😂
जवाब देंहटाएंJo tumne gaadi ki tarif Kari h tum wo shabd laye kaha se 😂😂
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