Bhagat Singh: Beyond an atheist

भगत सिंह कहते ही जो चेहरा आपके सामने आता है वो है - हैट पहना एक नौजवान,  हल्की मूंछे और एक खामोश पर  एक कैफ़ियत  से लबरेज़ एक शख़्स!

    आज उनका जन्मदिन है तो सोचा कुछ लिखूँ ,पर शुरू कहाँ से किया जाए इसके लिए काफी सोचने की जरुरत पड़ी। स्कूल के दिनों से ही अक्सर पोस्टर में दिखता ये चेहरा जिसे हम अपनी कला की कॉपी में बनाया करते थे। तब वो इंसान हमारे लिए एक आम सा  इंसान हुआ करता था पर ज्यों ज्यों उम्र परवान चढ़ी और जितना उसे जानते गए, वो शख़्स   दिन-ब-दिन और ख़ास बनता गया और आज का ये हासिल है कि  उसे जितना सोचो दिल में उसके लिए मुहब्बत और बढ़ जाती है और आँखों का ये समंदर भी कम पड़  जाया करता है। 

    

आज हमारे विश्वविद्यालयों में जिस उम्र में छात्र केवल निजी बहसों तक में खुद को मशगूल पाते है उस उम्र , 23 साल की उम्र में फांसी के तख़्त को चूमने वाला यह शख़्स  असाधारण रहा हो बचपन से ऐसा नहीं था उन्होंने खुद को हमेशा एक औसत व्यक्ति माना। प्राथमिक शिक्षा पाने के बाद जब वो लाहौर के डी ० ए ० वी ० कॉलेज में पढ़ने गए तो कहते है कि "मैं गायत्री मन्त्र का जाप किया करता था उन दिनों में पूर्ण भक्त था।  असहयोग के दिनों में भी मैंने नेशनल कालेज ज्वाइन किया और वहां मैंने उदारतापूर्वक धर्म पर चर्चा और आलोचना करनी शुरू की लेकिन यहाँ भी मैं भक्त ही था  वो कहते है कि  शुरुआत में मैं एक रोमांटिक आदर्शवादी क्रन्तिकारी था। परन्तु बाद में अध्ययन के बाद महसूस किया कि अब कोई रहस्यवाद नहीं, कोई अंधविश्वास नही.... यथार्थवाद मेरा पंथ बन गया। कॉलेज में मार्क्स, लेनिन,ट्रॉटस्की और अन्य क्रांतिकारियों को पढ़ना शुरू किया। 1926 के आने तक मैं एक सर्वशक्तिमान  सर्वोच्च सत्ता के अस्तित्व के सिद्धांत की निराधारता के बारे में आश्वस्त हो गया और मैं एक स्पष्ट नास्तिक बन गया था"। 1927  में गिरफ्तार होने के बाद जब उनसे कहा गया कि साथियों के ख़िलाफ फैसला दो तो उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया।  उसी दौरान कुछ पुलिस अधिकारियों  ने उन्हें  प्रार्थना आदि करने करने के लिए प्रेरित किया लेकिन वो कहते हैं कि मैं खुद को ईश्वर पर विश्वास करने के लिए प्रेरित न कर सका। 

    उनका कहना था ,"विश्वास मुश्किलों को नरम कर देता है यहाँ तक की सुखद भी बना सकता है यदि ऐसे में कोई व्यक्ति अपने घमंड से खुद को नास्तिक कहलाना पसंद करता तो उसका घमडं ऐसी स्थिति में कबका वाष्पित हो जाता! ईश्वर में विश्वास करने वाला एक हिन्दू एक राजा के रूप में  पुनर्जन्म की उम्मीद कर सकता है या कोई मुस्लिम या ईसाई स्वर्ग में आनंद के लिए विलासिता का सपना देख सकता है और उसे अपने दुःख और बलिदान के लिए इनाम मिल सकता है। लेकिन मुझे क्या उम्मीद है ?  जिस क्षण रस्सी मेरे गले में डाली जाएगी और मेरे पैरों के नीचे से लकड़ी हटाई जाएगी वो क्षण मेरा अंतिम क्षण होगा, हाँ  वो मेरा अंतिम क्षण होगा... मेरी आत्मा जैसा  कि आध्यात्मिक किताबों में कहा जाता है सब कुछ उसी वक़्त ख़त्म हो जायेगा। 

वो कहते हैं ," जिस दिन हम इस मनोविज्ञान के साथ बड़ी संख्या में पुरुष और महिलाओं को पायेंगे , जो मानव सेवा और पीड़ित  मानवता की मुक्ति  के इलावा किसी और चीज के लिए खुद को समर्पित नहीं कर सकते हैं , वह दिन स्वतंत्रतता के युग का उद्घाटन करेगा।  न राजा बनने के लिए, न किसी इनाम के लिए ,न स्वर्ग या किसी दूसरे जन्म में मृत्यु के बाद , उन्हें उत्पीड़कों, शोषको और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिए प्रेरित किया जाएगा  बल्कि गर्दन से दासता के जुए को उतार फेंकने के लिए प्रेरित किया जाएगा "

    जब आप एक प्रचलित विश्वास का विरोध करते हैं तो दूसरी और आप उस भीड़, जिस भीड़ का कोई चेहरा नहीं है उससे केवल निंदा पाते हैं। लेकिन हमारा विरोध हमेशा तार्किक होना चाहिए न कि किसी मजबूरीवश या  किसी दिखावे का।  क्योंकि दिखावे का विरोध क्षणिक या सामयिक हो सकता है शाश्वत कभी नहीं। 

    इसलिए भगत सिंह के चाहने वाले आपको हज़ार मिल जायेंगे पर उन आदर्शों पर जीने वाले आपने उँगलियों पर गिनती के भी नहीं देखे होंगे, मेरा यह पूर्ण विश्वास है। इसलिए शुरुआत में कहा था कि  जितना इस शख्स को जानो आप उतना उससे जुड़ाव महसूस करेंगे, खुद को उसकी और उतना आकर्षित होते पाएंगे!

reference: marxists.org

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