मिथक:पूर्व और पश्चिम
![]() |
picture :pinterest |
मिथक कथाएं बस कहानियां है जैसे हमें मेहनत का पाठ सिखाने के लिए ' कंकड़ और कौव्वे' की कहानी गढ़ी गयी है। ठीक इसी प्रकार विश्व की सभी सभ्यताओं में अलग अलग मिथक गढ़े गए इसलिए हमें अलग अलग सभ्यताओं के इन मिथकों में अलग अलग नायक देखने को मिलते हैं। हाँ सभी के गुण कार्यों में एक से है।
इंसान के प्रारंभिक विकास में इंसान ने प्रकृति के अजूबों को देखा और इनके स्पष्टीकरण के लिए कोई वाज़िब तर्क न ढूंढ पाने पर उस समय इन्हे समझाने के लिए कहानियां गढ़ी जिनमे देवताओं और राक्षसों के द्वारा चीजें बैलेंस करने के बावत कहानियां लिखी गयीं।
सोफी का संसार पढ़ते समय नॉर्डिक देशों की कहानियों का जिक्र है पर हमारे देश में भी यही सब देखने को मिलता है।
"नॉर्वे में ईसाइयत के आने से पूर्व लोग विश्वास करते थे कि थॉर (Marval की थॉर फिल्म में Chris Hammesworth) दो बकरियों द्वारा खींचे जाने वाले एक रथ पर आकाश में भ्रमण करता है ,जिसके पास अपने एक हथौड़ा है जिससे वह बिजली (thundar) नॉर्वे में thon -dor यानि थॉर की दहाड़ पैदा करता है। जिससे बारिश होती है और जमीन उपजाऊँ बनती है और फसलें होती है। यहीं मिथक भारत में 'इंद्र 'के रूप में हम देखते है।
वे लोग मानते थे की दुनिया के बीच में 'मिड्गार्ड' हैं जहाँ वो रहते है। असगार्ड में देवता रहते है और दूसरी छोर पर उत्गार्ड यानि धोखेबाज़ राक्षसों का साम्राज्य। जब सूखा पड़ता है तो राक्षस थॉर का हथोड़ा चुरा लेते है और फिर थॉर अपनी सूझबूझ से अपने मित्र-सेवक लोकी की मदद से अपना हथोड़ा पा लेता है तो फिर बसंत जैसी ऋतुओं का आगमन होता है। मार्वल फिल्मों के फैन इसे काफी हद तक ज्यादा जीवन्तता से महसूस कर रहे होंगे।
लेकिन महामारी जैसी स्थितियों के लिए क्या? तब उन लोगो ने इसकी व्याख्या की , उस समय इन देवताओं की शक्ति कम हो जाती है और इसलिए उन्हें भेंट स्वरुप एक बकरी देनी पड़ेगी जिससे उनकी शक्ति बढ़ जाएगी !
राहुल सांकृत्यायन ने अपनी किताब मानव समाज में 'जीवन के लिए खून की अहमियत ' पर काफी चर्चा की है जिसमे हिन्दुओं ,इस्लाम और ईसाइयत के मानने वालों के अपने अपने रिवाजों में यह दिखता है।
यही कहानियां यूनान भी पहुंची पर वहां दर्शन का प्रारंभ होते ही उन्होंने इन कहानियों का खंडन करना शुरू किया। उनका कहना था कि इन देवताओं के गुण तो इंसानों जैसे है , चालाकी धोखेबाजी कपट वगरैह फिर ये हमसे बेहतर कैसे? इस दर्शन का प्रणेता जेनोफेन्स (570 BCE) था जिसने उपरोक्त तर्क प्रस्तुत किये।
पहाड़ी क्षेत्रों में हम आज भी बलि प्रथा देखते है कहीं न कहीं वो ऐसे ही मिथक से जुड़े होते है पर आस्था अपने साथ बेवकूफ़ी भी 'चायपत्ती के साथ साबुन फ्री 'जैसी चीजें लेकर आती है। और इसके खरीददार और दुकानदारों की आज भी भरमार है। जिसमे न पढ़े लिखे लोगो के साथ 'पढ़े लिखे ' लोग भी कम नहीं ,कहीं ज्यादा ही न हो। आज भी हम अपने मिथकों को कहानी नहीं हक़ीक़त मानते है और उसके लिए 'दूसरों ' से लड़ने और मरने-मारने को भी तैयार है। राजनीति उसमे 'हींग का तड़का ' अलग से देती है ताकि स्वाद का ज़ायका बना रहे।
निजी तौर पर मेरी शिकायत शिक्षकों से खासकर विज्ञान के शिक्षकों से ज्यादा है, क्यों आप विज्ञान में केवल कोशिका , रासायनिक समीकरण और ध्वनि पर प्रश्न हल करवाने को ही विज्ञान समझते है। क्या सही मायनों में तार्किक बनाना विज्ञान शिक्षक का मूल काम नहीं है?
आज विज्ञान ने प्रगति की है। आज बारिश होते देख हम मानसून और पहाड़ी वर्षा के बारे बात करते है, न कि किसी इंद्र को हाथ जोड़ते है ! इस पर किसी को हंसी आ सकती है। पर अन्य विश्वासों का क्या ? क्या हम हर चीज को तर्क से देख भी रहे है!
स्थानीय स्तर पर आप देखोगे कि बीमार होने पर यहाँ दवा से ज्यादा 'घर के देवता ,जंगल के देवता का कांसेप्ट" ज्यादा प्रभावी है। और इसका हल 'पूज और जागर' केवल मात्र है। और यह केवल ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी मैंने बराबर देखा है। शिक्षकों तक को विज्ञान पर बातें करने से ज्यादा 'कुछ और ही लगा है इसे" पर बात करते ज्यादा सुना हैं। आप तर्क करें तो आप ' ज्यादा पढ़ लिया है ' की फ़ेहरिस्त के नाज़िर हो जाते है।
इसलिए कहानियों को कहानी ही देखा जाए और आज के वैज्ञानिक युग में लगभग हर चीज तर्कों से समझी जा सकती है, हम भी अपने मस्तिष्क को थोड़ा विज्ञान की आदत लगाएं यह बड़ा जरूरी है। और हाँ इस समझ को अपने तक रखने से ज्यादा बढ़ाना (communicate and propagate) करना मेरे हिसाब से आज के बेहद जरूरी कामों में से एक है।
चलो यहा तो थोर और लोकी दोस्त है।😂
जवाब देंहटाएंइंट्रेस्टिंग रीड।