Closest to Himalaya: Panchachuli Trek

 

" सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ, ज़िंदगानी ग़र रही तो नौजवानी फिर कहाँ" ख़्वाजा मीर दर्द का ये शेर हर दौर में उतना ही मौंजूँ रहेगा।सफ़रनामों का उद्येश्य सबके लिए अलग अलग हो सकता है।मेरे लिए इसका हासिल ख़ुद को बेहतर जान पाना रहा है।इसका कारण ये है, मेरे किए या किए जा रहे सफ़रों में एकांत पहाड़ी जगहें ज़्यादा रहीं है या होती है, वहाँ बस आप होते है इसलिए ख़ुद को बेहतर तरीक़े से सोचने विचारने का समय ज़्यादा होता है, क्योंकि तब हम भीड़ का हिस्सा नहीं होते।

मेरी तरह ज़्यादातर सरकारी नौकरों के लिए अगर गैजेटेड छुट्टियों के बीच अगर एक दो CL लेकर छुट्टियाँ बढ़ सकें, तो इससे बेहतर कुछ नहीं होता।इसमें दो ऑप्शंस होते है या तो घर चले जाओ या फिर अपना बैग बाँधों और कहीं निकल पड़ो।मैं दूसरे वालों में हूँ।इसलिए इस बीच भी जब 3 दिन थे तो सोचा एक किताब ( पथरीली पगडंडियों पर-खड़ग सिंह वल्दिया) की किताब बैग में डालकर सोचा था कि चौदास घाटी के दूरस्थ स्थान नारायण आश्रम में 3 दिन बिताऊँगा। इसलिए बैग अपनी मोटरसाइकिल पर बांधकर मैं निकल पड़ा, अपनी कर्मस्थली से गंतव्य की ओर। डीडीहाट से 28 Kms जौलजीबी (जहां पर मिलम ग्लेशियर से आने वाली गोरीगंगा और कालापानी से आने वाली काली या महाकाली नदी का संगम होता है) और उसके बाद जौलजीबी से धारचूला जो कि, 28 Kms दूर है।वहाँ पहुँचता हूँ। जौलजीबी और धारचूला में आपको भारतीय और नेपाली लोगो के बीच एक ग़ज़ब का सामाजिक और सांस्कृतिक समावेश दिखता है।इन दो संस्कृतियों के बीच रोटी-बेटी का संबंध उतना ही सामान्य है, जितना आपको अपने आस पास एक जाति के भीतर देखने को मिलता है। मुझे याद है, वर्ष 2016 में जब मैं पहली बार जौलजीबी पहुँचा था, तो ये जानकर स्तब्ध था कि नेपाल से एक बारात वहाँ आयी है।आपको बता दूँ कि जौलजीबी से पहले अस्कोट से ही आपको सड़क के पार नेपाल दिखना शुरू हो जाता है,बीच में महाकाली नदी है जो एक प्राकृतिक भौगोलिक सीमा बनाती है।

जौलजीबी और धारचूला में भारतीय और नेपाली मुद्रा (Currency) दोनों ही चलती है, पर वैल्यू अलग है।जितना मैं जानता हूँ 1 भारतीय रुपये की क़ीमत 6 नेपाली नेपाली रुपया है।जौलजीबी काफ़ी छोटा सा क़स्बा है, पर धारचूला अच्छा ख़ासा बाज़ार है और इस रूट का आख़िरी बाज़ार भी।यह एक गर्म जगह है।

धारचूला से तवाघाट की दूरी 18 Kms है।धारचूला से आगे अब आप महसूस करते है कि इस आइसोलेटेड जगह की ओर मुखातिब है।आगे की समझ के लिए नीचे दिया मैप कारगर होगा।

Pic:footloosedev.com


इसके आगे का क्षेत्र, तीन घाटियों में नामित है- दारमा, चौदास और व्यास।दारमा जिसपर मैं आगे बढ़ता हूँ, ऊपर मैप दिखाया है। चौदास बीच का क्षेत्र है, जिसमें नारायण आश्रम स्थित है। और व्यास घाटी जो कैलाश मानसरोवर यात्रा का रूट है,जिसमें लिपुलेख दर्रा, आदिकैलाश आदि आते है।

ख़ैर, मैं तवाघाट से बायें निकल पड़ता हूँ जो आगे नारायण आश्रम को जायेगा।तवाघाट से एक नया शोर्ट रास्ता थानीधार को जाता है जहां से आप, नारायणआश्रम जल्दी जा सकते है पर वो नया है, कच्चा है और थका देने वाला है, इसलिए मेरी राय में शॉटकर्ट ना लें।तवाघाट से तक़रीबन 9 Kms कंच्योती है जहां पर आपको चाय या ख़ाना वगेरह हर मौसम में मिल जाएगा।मैं भी खाने ये लिए रुकता हूँ दिन का 1:30 बज रहा था। यही पर वैली ब्रिज है जिसे पार करके आप नारायणआश्रम(26 Kms) जाएँगे।पर खाना खाते वक़्त मैंने होटल वाली दीदी से पूछ लिया, " दारमा का रास्ता खुला है?" उन्होंने कहा-हाँ। होने को उनकी बात पर मुझे यक़ीन कम था, पर वहाँ पर से दुग्तू गाँव (पंचाचूली पर्वत का ट्रेक शुरू) 38 Kms का है इसलिए रिस्क लेने में मैंने कोई ज़्यादा सोचा नहीं। शहरी लोग इसे केवल 38 Kms ना समझें, इसे तय करने में आपको कम से कम 2.5 घंटा लगेगा अगर आगे रास्ता बंद नहीं हुआ, और आपकी गाड़ी कहीं फँसे ना तो! 

ख़ैर बाइक में बैग बंधा था, तो मैंने गाड़ी अब दायें( नारायण आश्रम) के बजाय सीधे दारमा घाटी की तरफ़ मोड़ ली।आगे अब सड़क ख़राब होना शुरू होती है।सबसे पहले सोबला, फिर दर; शायद इसीलिए इस घाटी का नाम दारमा पड़ा है।दर में सड़क पिछले साल की तरह ही ख़राब थी। दर में एक जगह पर लगभग 45 डिग्री की चढ़ाई है, और सूखी मिट्टी…इसलिए चढ़ाई में मेरी 125 CC बाइक रुक गई क्योंकि दूसरे गियर में थी। रुकने का मतलब बाइक का पीछे फिसलना… पहला गियर पड़े नहीं! लगभग बैलेंस बनाकर बमुश्किल पहला गियर पड़ा और आगे निकला।इसके आगे वोकलिंग, फिर उर्त्किंग फिर सेला।ये लगभग 5-7 Kms की दूरी पर स्थान पड़ते है।छोटे छोटे गाँव है। अभी मैं पूर्वी धौलिगंगा के साथ साथ चल रहे है।इसके आगे है नागलिंग…पिछले साल हम तीन लोग;  मैं , नितिन और हीरा भाई यहीं से आगे पैदल गए थे क्योंकि नाग्लिंग में सड़क पर आया पहला ग्लेशियर काटा जा रहा था, जिसे हमने पार किया था पर दूसरा ग्लेशियर अगले दिन तक भी काटना संभव नहीं था।
नॉगलिंग वर्ष 2022 अप्रैल

नांगलिंग से अब आपको बर्फ से लदी पहाड़ियाँ दिखना शुरू हो जाती है।और आप इस ख़ूबसूरती में खोने लग जाते है।इस ख़ूबसूरती में चार चाँद लगाये अचानक मोड़ पर मेरे बाइक के आगे से उड़ी मोनाल ने।पक्षियों में नर हमेशा ज़्यादा चटख रंग के होते है जो देखने पर ज़्यादा सुंदर लगते है, जिस मोनाल को आप उत्तराखंड के राज्य पक्षी और नेपाल के राष्ट्रीय पक्षी के रूप में देखते है वो नर मोनाल है।जो मोर को भी टक्कर देता दिखता है।और उड़ते वक़्त इसकी ख़ूबसूरती कही ज़्यादा बढ़ जाती है।


नांगलिंग में मुझे कोई भी इंसान नहीं मिला, अब मैं थोड़ा सशंकित था कि आगे कोई होगा भी या नहीं! ख़ैर किसी के ना होने पर मैं जानता था वापस कहीं तो तो पहुँच ही जाऊँगा, जहां लोग होंगे। ख़ैर नांगलिंग से आगे बालिंग आने पर अब सिर्फ़ और सिर्फ़ लगभग 270 डिग्री पर बर्फ थी चारों ओर।और सड़क पर भी।मैं अकेला था, पर बेहद खुश था। क्योंकि यहाँ मेरे साथ ये ख़ूबसूरत प्रकृति थी।एक दो जगह उतरा।और देर तक बैठे बैठे निहारते रहा।

दो जगह पर मोटरसाइकिल बर्फ में फँस भी गई।क्योंकि 4 बज चुका था और अब दिमाग़ में और भी ख़याल थे।अच्छी बात ये थी कि मौसम ने साथ दिया, छिटपुट बूँदाबारी के इलावा कुछ हुआ नहीं और आसमान साफ़ ही दिख रहा था।बर्फ में बाइक फँसने से ख़राब और कुछ नहीं, क्योंकि अगर आप अकेले है तो धकेलने के लिये कोई है नहीं, और पॉवर देने पर सिर्फ़ पिछला टायर घूमता है और गड्ढा बनता जाता है। ख़ैर क्योंकि मेरी हल्की बाइक थी तो थोड़ा मेहनत से मैंने निकाल ही ली।और चल पड़ा।अख़िरकार मैं 4:30 पर दुग्तू में था।
I was very lucky that day! दुग्तू पहुँचने पर होम स्टे वाले प्रकाश भाई, 5-6 MES के फ़ौजियों को लेकर पहुँचे थे, मुझसे ही कुछ घंटे पहले, इसलिए अब मैं बेफ़िक्र था अब। बाइक रोकते ही MES के जवानों ने पूछा, " कितने लोग आये हो?" मैंने जवाब दिया-"अकेले आया हूँ" वो मेरी बहादुरी की दाद दिये बिना नहीं रहे; उसका कारण लाज़िमी था अकेले आने पर रास्ते बंद होने का डर या गाड़ी में कोई ख़राबी होने का डर तो होता ही है। आप इसे मेरी बेवक़ूफ़ी या बहादुरी कोई भी टैग दे सकते हैं, मुझे दोनों मंज़ूर है।



प्रकाश भाई ने चाय पिलाई, और रूम में अपना बैग रखने के बाद मैंने सोचा थोड़ा, घूम लिया जाये। थोड़ा ट्रैक को देखने के बाद मैं, वापस एक घर के आगे बैठ कर अब चारों ओर निहारने लगा क्योंकि अब लगभग 330 डिग्री पर बर्फ ही बर्फ थी, जो शायद ऊपर वीडियो में आप देख चुके हों।मोबाइल पर बैटरी ख़त्म होने को थी, पर इस उम्मीद में कि चार्जर और पावरबैंक है मैंने रूम में बैग का रुख़ किया।पर दोनों नदारद थे, कहीं रास्ते में शायद बैग से गिर चुके थे, समस्या ये थी कि मेरे फ़ोन का चार्जर किसी के पास होना असंभव था! बस दुख ये था कि फोटो नहीं ले पाऊँगा!

रूम पर गया और लेट गया। अंधेरा होने पर सोचा फ़ौजी भाई अपनी महफ़िल में मस्त थे, तो होमस्टे वाले प्रकाश भाई के साथ बैठा जाये। नीचे जाने पर प्रकाश भाई ने चाय के लिए पूछा। चाय और मैं! ना का सवाल ही नहीं है। चाय पी ही रहा था, कि अचानक बाहर अंधेरे में मोटरसाइकिल की आवाज़ सुनाई दी।अंदर आया लगभग मेरा हमउम्र लड़का, ऐसे सफ़र में आप बात करने में हिचकिचाते नहीं है और मैं क्योंकि हॉस्टल में रहा हूँ, और हॉस्टल वाले दोस्त बनाने में एक्सपर्ट होते है, ये मेरा अपना अनुभव है। थोड़ी देर में एक और लड़का, "हैलो मैं दीपक" जवाब आया- " मैं सैंडी" पहले वाले लड़के का नाम हिमांशु है, ये मैंने उनसे अगली सुबह पूछा। वैसे भी नाम में क्या रक्खा है, अगर लोग एक जैसे ख़यालों के हों तो!
 कुछ देर में खाने के वक़्त अचानक च्यकती  (स्थानीय शराब) देखकर जब में ख़ुद को रोक नहीं पाया तो, मैंने भी टेस्ट की इच्छा जताई, और इसका टेस्ट सच में अच्छा था। ये शब्द मैंने सबसे पहले अशोक पांडे जी के हालिया यात्रावृत्तांत ' जितनी मिट्टी उतना सोना' में सुना था, और तारीफ़ सुनी थी।इसलिए ख़ुद को न रोक पाना लाज़िमी था।यह यात्रा वृत्तांत अशोक जी के वर्ष 1999-2000 में दारमा घाटी से सिनला दर्रा पार करके व्यास घाटी में जाने का वृत्तांत है, इसमें आप रं समाज को बेहतरी से समझ सकते है।

ख़ाना खाकर जब हम बाहर आये, तो सच में लगा हम जन्नत में है। अतिशियोक्ति से परे, सच में मेरे पास उस नज़ारे को बताने के लिए लफ़्ज़ नहीं है, जिसे कैमरा भी क़ैद नहीं कर सकता था।चारों ओर चाँदनी में चमकता हिमालय था, बीच में हम और साफ़ आसमान।होने को हिमांशु भाई ने तस्वीर ली जो नीचे है।

कमरे में पहुँचते ही हिमांशु भाई कहते है, चाय पियोगे? मैंने कहा यार अब कहाँ प्रकाश भाई को परेशान करें, तो जवाब आया मैं बर्तन और बर्नर लाया हूँ! नेकी और पूछ पूछ। चाय बनाइ पी फिर हम सो गये इस उम्मीद में कि, सुबह 5 बजे उठकर ट्रेक करेंगे।

सुबह 3:48 हो रहा था, हिमांशु भाई उठे और चाय बनाने लगे। मुझे अपने साथ सबसे प्रिय वो है जो मुझे सुबह बिस्तर में चाय दे दे। ये काम हिमांशु ने सँभाला था आज। पर मुझे थोड़ी झल्लाहट हुई, उनके जोर से म्यूजिक बजाने में, पर चुप रहा…आख़िर चाय का क़र्ज़ था! आधे घंटे में उन्होंने, मदमहेश्वर के भजन से लेकर, कुमाऊँनी गाने और बॉलीवुड तक सब का फ्यूज़न कर डाला। टॉयलेट बाथरूम जाकर 5 बजे तक हम बिल्कुल तैयार थे। अब सैंडी और हिमांशु दोनों मेरे अच्छे दोस्त बन चुके थे, होने को दोनों उम्र में मुझसे कम है।
मैं और हिमांशु भाई चल पड़े, सैंडी भाई पीछे थे। दोनों बहुत ज़िंदादिल इंसान है। हिमांशु एरीज़ के देवस्थल में टेक्निशियन है, जहां भारत की सबसे बड़ी ऑप्टिकल टेलिस्कोप(3.6 DOT) लगी है।और सैंडी प्रोफेशनल wedding फोटोग्राफर है।इसलिए अब फोटो की दिक़्क़त अपनी थी नहीं।फ़ोन मेरा बंद था।
दुग्तू से पंचाचूली जीरो पॉइंट लगभग 2 Kms के आस पास होगा, पर बर्फ इतनी थी कि, कई जगह घुटने से ऊपर तक पैर धँस रहे थे, झल्लाहट भी हो रही थी।कुछ जगह पर बर्फ में निशान भी दिखे, शायद हिरन के रहे हों।

पूरा ट्रेक सुरही या देवदार और भोजपत्रों के जंगल से घिरा है।और इसकी ख़ूबसूरती बर्फ में ही है, होने को लोग अक्सर सितंबर अक्टूबर में भी यहाँ आते है जब इसमें सिर्फ़ घास होती है।बहरहाल, लगभग 1घंटे 45 मिनट चलने के बाद हम पंचाचूली के सामने खड़े थे, जहां तक कि ज़ाया जा सकता था, इसके आगे शायद केवल वही जाते होंगे जिन्हें पंचाचूली फ़तह करना है।इस बर्फ़ में तो इससे आगे जाना असंभव था क्योंकि बर्फ में सबसे पहले निशान हमारे ही थे।

अख़िरकार सैंडी भाई भी पहुँचे। बर्फ गलाकर हमने चाय बनाई, जो कि सच में मेरे जीवन की अभी तक सबसे यादगार चायों में रहेगी।जिसके लिये हिमांशु भाई का जितना शुक्रगुज़ार हूँ, कम हूँगा। फोटोग्राफी और ड्रोन शॉट लेने के बाद हम नीचे उतरने लगे।MES के फ़ौजी आधे से ही नीचे वापस हो लिए थे। रात की रोटियाँ और मैगी हमारा नाश्ता था। नाश्ते से फ़ारिग होकर हमारी bikes तैयार थी,वापसी के लिए।दुग्तू आख़िरी नहीं है…इसके आगे दाँतू, मार्च्छा, सीपू (एक ओर आख़िरी) और वेदांग और तिदांग है जहां से आप सिनला दर्रा( 18000 फीट) पार करके व्यास घाटी जा सकते है।मेरी फ़ेहरिस्त में यह सफ़र भी अंकित है।देखते है कब मुकम्मल हो पाता है।
    वापसी में मैं, नारायणआश्रम भी गया; हम तीनों,उसे फिर किसी नये ब्लॉग में कलमबद्ध करूँगा।

आख़िर में, यही कहूँगा कि जहां तक मैं गया हूँ या सुना है, आप सबसे ज़्यादा क़रीब से हिमालय को पंचाचूली से ही देख सकते है। इसलिए मौक़ा लगे तो ज़रूर जायें। मेरी एक दोस्त का कहना है, कि मैं उसके सपने जी रहा हूँ! पर मुझे लगता है, मैं बहुतों के सपने जी रहा हूँ, कुछ जिनके पास आज़ादी नहीं है, सामाजिक और आर्थिक दोनों। कुछ वो जो आज़ाद होकर भी अपने पिंजरे में क़ैद है।ये सफ़र आपको, आपसे मिलवाते है, एक भीड़ और रैट रेस से आपको अलग करते है, जीवन कितना ख़ूबसूरत है…ये आपको समझाते है। इसलिए अख़िरकार फ़ैज़ की नज़्म के साथ…और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा; राहतें और भी है वस्ल की राहत के सिवा।
pc: प्रकाश भाई


फ़ोटोज़ के लिए हिमांशु और सैंडी भाई का धन्यवाद।




टिप्पणियाँ

  1. Sir cha gye.। Kya lokha hai.। Maja a gya yaad taja kar di aapne

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  2. नया अनुभव नया एहसास करा दिया

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  3. किसी यात्रा की कितनी खूबसूरती से जिया जा सकता है मैने यह ट्रैवल ब्लॉग पढ़ते हुए महसूस किया।उससे भी ज्यादा इसे जिन शब्दों और नज्मों में पिरोया गया हैं।यह इसे जीवंत बना देते हैं।शुक्रिया Deepak sir का इतना खूबसूरत ब्लॉग लिखने और साझा करने को।🌺✨🌸

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