Dr. Ambedkar & Annihilation of Caste

 

चित्र: इंटरनेट
ये जानते हुए भी कि मेरा ये ब्लॉग, अभी तक के सबसे कम पढ़े जाने वाले ब्लॉग में होने वाला है; सोचा अपनी समझ के अनुसार डॉ अंबेडकर के बारे में कुछ लिखा जाये।

14 अप्रैल 1891 में  जन्मे अंबेडकर एक महान विचारक, दार्शनिक, अर्थशास्त्री, क़ानूनविद और अंततः एक दलित क्रांति के अग्रदूत हैं।लेकिन आज के बदलते हिंदुस्तान में हिंदुओ के भीतर उनकी छवि बस एक दलित नेता और विचारक से ज़्यादा कुछ नहीं है।

जनगणना 1911 के अनुसार, महार जाति का साक्षर प्रतिशत 1% था, जबकि चितपावन ब्राह्मणों में साक्षरता 63% थी। इन सूचनाओं का स्रोत, डॉ अंबेडकर की जीवनी ( क्रिस्टोफ़ जेफ्रलो) में मिलता है।जो कि डॉ अंबेडकर की सबसे प्रामाणिक जीवनी मानी जाती है।उस दौर में बिल्कुल विपरीत परिस्थितियों से निकलकर देश के संविधान निर्माता एवं क़ानून मंत्री तक का सफ़र डॉ अंबेडकर के लिए कभी आसान नहीं रहा।

कुछ घटनायें, जैसे कक्षा के बाहर बैठाना या बैलगाड़ी में ना बैठने देना जैसी घटनायें आज हमें पढ़ने पर बड़ी आम या मामूली लगती है, पर ये घटनायें एक बच्चे के मन में बहुत बुरा असर डालती है।समाज में प्रिविलेज क्लास के लोग इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। मुझे आज भी आश्चर्य होता है, जब मैं डॉ अंबेडकर के जीवन के संघर्ष को पढ़ता हूँ। क्योंकि उस दौर की जातिवादी व्यवस्था से निकलकर विदेश में पढ़कर और वापस आकर सामाजिक बराबरी के लिए लड़ना, अपने आप में एक मिसाल ही है। 

एनहिलेशन ऑफ़ कास्ट में डॉ अंबेडकर के  विचार दर्शन एवं सामाजिक विश्लेषण को बहुत अच्छे से समझा जा सकता है।उसमे डॉ अंबेडकर लिखते है," आधुनिक भारत में जाति को राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर नये सिरे से परिभाषित करने की कोशिश जारी है। जिनका मूल उद्दयेश्य जाति उन्मूलन के बजाय हिंदू अस्मिता की एक वृहत्तर इकाई में दलित जातियों को गोलबंद करके राजनीतिक हितों को पूरा करना है।" आगे वे लिखते है, जाति प्रथा श्रम का विभाजन नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन है। समाजवादियों द्वारा यह कहा जाता है कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है इसलिए उन्हें लगता है कि संपत्ति के समानीकरण द्वारा सब ठीक किया जा सकता है पर अगर इसमें सच्चाई हो तो क्यों भारत में, लखपति लोग अकिंचन, साधुओं और फ़क़ीरों की आज्ञा मानते है? भारत में लाखों दरिद्र अपनी संपत्ति बेचकर भी क्यों बनारस या मक्का जाते है? हाल के दिनों में आप एक ढोंगी और अंधविश्वासी बाबा के समर्थन में आयी भीड़ को देख सकते हैं।

अपने इसी लेख में डॉ अंबेडकर लिखते है, कि हिंदू समाज एक मिथक मात्र है।हिंदू शब्द ख़ुद में एक विदेशी नाम है जो कि अरब वासियों ने सिंधु ओर के लोगो को दिया ताकि वे उन्हें ख़ुद से अलग एक पहचान दे सके।अरब के आक्रमणों से पहले के किसी भी संस्कृत ग्रंथ में इस शब्द का ज़िक्र नहीं मिलता।और हिंदू धर्म की नींव ही जाति है। बिना जाति के इसका कोई अस्तित्व नहीं है।जातिप्रथा एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है, जो हिंदू समाज के ऐसे विकृत समुदाय की झूठी शान और स्वार्थ की प्रतीक है, जो अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुसार इतने समृद्ध थे कि उन्होंने इस जातिप्रथा को प्रचलित किया और इस प्रथा को अपनी जोर जबरदस्ती के बल पर अपने से निचले तबके के लोगों पर लागू किया।डॉ अंबेडकर कहते है, हिंदू जाति व्यवस्था उस मीनार की तरह है, जिसमें मंजिले तो हैं पर बिना सीढ़ियों के।आप जिस स्थान पर है वहाँ से ऊपर पहुँचने का आपके पास कोई रास्ता नहीं। इस व्यवस्था का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और रक्त शुद्धता जैसी खोखली दलीलें केवल भ्रम मात्र है।भारत में कोई भी शुद्ध रक्त वाला हो ही नहीं सकता।श्री डी आर भंडारकर ने अपने लेख- Foreign Elements in Hindu Population में लिखा है,भारत में शायद ही कोई वर्ग हो जिसमें किसी विदेशी वंश का मिश्रण ना हो।

आगे अंबेडकर कहते है, कि एक आदर्श हिंदू उस चूहे की तरह है जो अपने ही बिल में घुसा रहता है और दूसरों के संपर्क में नहीं आना चाहता, इसका कारण उसकी दूसरों के ऊपर अपनी झूठी सभ्यता और संस्कृति का नक़ाब है। 

जिस दौर में हम जी रहे है, ये झूठी शान के पुलिंदे और भी भारी होते मुझे नज़र आते है। बीते दो दिन पहले एक छोटी बच्ची ने अपनी ही क्लास की विधर्मी बच्ची के  मुँह पर यह कहकर थूक दिया कि उनके धर्म के लोग गंदे होते है।ये उस बच्ची को सिखाया किसने? इसकी ट्रेनिंग उन्हें अपने घर से मिलती है, और बाक़ी रही सही कसर मीडिया और राजनीति पूरा कर देते हैं। आज ही की न्यूज़लाउंड्री की रिपोर्ट में पढ़ रहा था कि, मेरठ में एक बैंक्वेट हॉल वाले ने कह दिया कि, " हम वाल्मीकि जाति के लोगो को बुकिंग नहीं देते, आपने पहले बताना चाहिए था और आकर अपने एडवांस पैसे ले जाओ"। हाल में मेरे एक सहकर्मी ने मेरी बातों का विरोध जताते हुए ये तर्क दिया कि उसके गाँव के दलित भी लखपति है।मेरे द्वारा प्रत्युत्तर में कि क्या उसके बावजूद आपने उन्हें सामाजिक समानता दी है, तो सिवाय मुस्कुराने के इलावा उन साहब के पास कोई जवाब नहीं था। इसलिए जिन्हें यह लगता है, कि आर्थिक आधार पर सक्षम हो जाने से, समाज में किसी को वो इज्जत मिल जाती है, तो ये कुछ हद तक सही हो सकता है, पर औसत तौर पर क़तई नहीं।अपनी जाति का प्रिंट अपने कार या मोटरसाइकल पर लगाने वालों से लोगों को  कोई दिक़्क़त नहीं है, पर जाति के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों में उन्हें, जातिवाद बख़ूबी नज़र आने लगता है,हद तो तब हो गई जब हाल में मैंने एक व्यक्ति की टीशर्ट के पीछे उसकी जाति का नाम छपा देखा, ये वही लोग है जो अच्छे से जानते है बिना उनकी जाति के पहचान के, उनके जीवन का कोई आधार नहीं क्योंकि, उनके कर्म इस लायक़ नहीं कि उन्हें समाज में कोई पहचान दिला सके।

ज़्यादातर हिंदू समाज के लिए डॉ अंबेडकर सिवाय एक दलित व्यक्ति के कुछ नहीं।इसे आप ऐसे देखें कि, आज भी अधिकांश अपरकास्ट हिंदू शायद उतनी नफ़रत शायद ही किसी और विचारक से करते हैं , जितना कि डॉ अंबेडकर से। कारण डॉ अंबेडकर ने पिछड़ों के हक़ के लिए लड़ाई लड़ी एवज़ इसके फिर संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की।  ये बात एक कब्र में पैर लटकाए बूढ़े और स्कूल कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चों दोनों को सहज मालूम होती है। यहाँ तक कि, हिंदू कोड बिल( जिसमें महिलाओं को संपत्ति में पुरुषों जितना अधिकार मिल सके) सरीखा प्रावधान लाने वाले अंबेडकर से अपरकास्ट महिलाओं  को भी उतनी ही दिक़्क़त है।उनके लिए आज भी मनुस्मृति जैसी भद्दी किताबें, संविधान से ऊपर हो जाती है।

डॉ अंबेडकर जयंती के दिन, अख़बारों से लेकर कॉलम और, सोशल मीडिया पर तक अंबेडकर को याद करने वालों में आपको 99.99% केवल दलित जातियों से आने वाले लोग मिलेंगे। अगर इक्का दुक्का हिंदू अपरकास्ट उन्हें याद कर दें तो इसे अपवाद ही माना जाएगा, उदाहरण नहीं। ख़ैर ज़्यादा लिखने का वैसे भी कोई तुक नहीं क्योंकि, अधिकांश लोग या तो इस ब्लॉग को इग्नोर कर देंगे या अंबेडकर को मन ही मन खरी खोटी सुना, ग़ुस्से के घूँट पी जाएँगे।आख़िर में; उनके लिए,  जिनके लिए इंसान- इंसान में कोई भेद नहीं, जिनके लिए इंसान का मज़हब और जाति, सिवा इंसानियत के इलावा कुछ नहीं, सफ़दर हाशमी की ये नज़्म-

पढ़ना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों
पढ़ना-लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालों

क ख ग घ को पहचानो
अलिफ़ को पढ़ना सीखो
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो

ओ सड़क बनाने वालों, ओ भवन उठाने वालों
खुद अपनी किस्मत का फैसला अगर तुम्हें करना है
ओ बोझा ढोने वालों ओ रेल चलने वालों
अगर देश की बागडोर को कब्ज़े में करना है

क ख ग घ को पहचानो
अलिफ़ को पढ़ना सीखो
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो

पूछो, मजदूरी की खातिर लोग भटकते क्यों हैं?
पढ़ो,तुम्हारी सूखी रोटी गिद्ध लपकते क्यों हैं?
पूछो, माँ-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं?
पढ़ो,तुम्हारी मेहनत का फल सेठ गटकते क्यों हैं?

पढ़ो, लिखा है दीवारों पर मेहनतकश का नारा
पढ़ो, पोस्टर क्या कहता है, वो भी दोस्त तुम्हारा
पढ़ो, अगर अंधे विश्वासों से पाना छुटकारा
पढ़ो, किताबें कहती हैं – सारा संसार तुम्हारा

पढ़ो, कि हर मेहनतकश को उसका हक दिलवाना है
पढ़ो, अगर इस देश को अपने ढंग से चलवाना है

पढ़ना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों
पढ़ना-लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालों ।

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