जीवन के मायने क्या?
जाड़ों में इंसान ही नहीं, जानवर और पक्षी जगत भी सुबह की नर्म धूप के लिए आतुर रहता है।जंगल बाब्लर आजकल घरों के आस पास ख़ूब दिखाई देने लगी है।और ये झुंड में रहती है।या तो छोटे पेड़ो पर फ़ुरसत से या फिर जमीन में कुछ ढूँढते-खोजते आपको दिखाई देगी। पर इन पक्षियों से इंसान क्या सीख सकता है? जवाब-जीवंतता।
गुलज़ार साहब की लिखी एक बेहतरीन नज़्म की लाइनें कुछ यूँ है-" ज़िंदगी क्या है जानने के लिए…ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है।"केवल साँसें लेना भर जीना नहीं कहा जा सकता,न कहा जाना चाहिए। हम इंसान अपने वर्तमान को ना सोच, भविष्य के लिए परेशान रहते हैं।इसमें अधिकांश लोग यही 'ज़िंदा रहना' भूल जाते है।एक मशीनी जीवन बनकर वही रोज़ के कामों में घिसते है और उनकी कहानी भी ऐसे ही किसी रोज़ एकाएक ख़त्म हो जाती है।
अंग्रेज़ी के लेखक फ़्रेंज़ काफ़्का ने Existentialism के भाव पर अपना मशहूर उपन्यास ‘Metamorphosis' लिखा। जिसमें इंसानी यांत्रिक जीवन को ही केंद्र पर रखा गया है। दूसरों की, जिसमें अपने करीबी भी शामिल है; उनकी ख्वाहिशें पूरी करते करते कब हम जीना बंद कर एक यांत्रिक जीवन जीना शुरू कर देते है, हमें ख़ुद पता नहीं चलता!
पक्षियों में या जीव जगत में सच में "जीवन रोज़ का संघर्ष है" पक्षियों के बच्चे किस पल, किसी बाज़ का आहार बन जाये वो नहीं जानते।अंडे से बच्चे निकल भी पायेंगे भी नहीं वो नहीं जानते। पर वो बिना अपनी भविष्य की फ़िक्र किए रोज़ जीते है,खुल कर जीते है।प्रकृति से उतना लेते है जितनी ज़रूरत है।अपनी पूँजी( दाना-खाना) का ढेर नहीं लगाते।अपने साथ साथ 'कम्यूनिटी' उनके जीवन का हिस्सा है।इंसान ने दिमाग़ी तरक़्क़ी की है, पर इस तरक़्क़ी का ख़ासा असर हमने 'ज़्यादा सोचने( फ़ालतू सोचने)' पर किया है।देखा देखी पर ज़्यादा और मौलिक विचारों पर कम किया है। हमने ख़ुद को प्रकृति से दूर कर दिया है।शहर के कंक्रीट के ढेर में एक 'कंकड़' हमारा भी हो की सोच ने शहरों से पेड़ पौधे ग़ायब कर दिये है। पक्षियों का दिखना अब गाँवों तक सीमित हो गया है।क्योंकि हमारे विकास में प्रकृति लगातार ग़ायब हो रही है। पाठ्यक्रमों के 'समावेशीय विकास' तक की किताबी बातों में विकास संकुचित हो गया है।गोष्ठियाँ केवल अख़बारों की सुर्ख़ियाँ और शोध पत्र केवल अपना बायोडेटा एक पेज और बढ़ाने का माध्यम हो चला है।
अंततः इस अपील के साथ कि, जीवन आपका है,इसलिए चुनाव भी आपका होना चाहिए।किताबें रोज़मर्रा का हिस्सा बनायें क्योंकि ये दूसरों के अनुभव है। घूमें और यात्रायें करें।इससे आपके पूर्वाग्रह दूर होंगे।जीवन में पल पल को जियें और इंसानियत को बेहतर बनाने का प्रयास करें। प्रयास करें, चाहे ये कितने छोटे क्यों ना हो। इसी उम्मीद के साथ…साल की शुरुआत…
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