छिपलाकेदार: कुमाऊँ का सबसे दुर्गम और ख़ूबसूरत ट्रैक
जब कभी आप कहीं लंबा निकलने की योजना बनाते हैं, तो अमूमन वह मुश्किल से ही पूरी हो पाती है। हम तीन दोस्तों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। मई 2023 में जाने का प्लान था। मगर एक तो मंज़िल की ओर नज़र डालने पर बर्फ़ की सफ़ेद चादर तनी दिखाई पड़ती थी और दूसरे कोई न कोई मसला किसी न किसी के साथ ऐसा उलझता कि जाना स्थगित हो जाता था। बेशक जाना तीनों को साथ था- अनिल, प्रकाश और मुझे।
यह बात हमें पता थी कि सफ़र बहुत मुश्किल होगा। पर अहमद फ़राज़ की
यह नसीहत भला किस ट्रैकर की जुबान में नहीं चढ़ी रहती है:
न मंज़िलों
को, न हम रहगुज़र को देखते है
अजब सफ़र है कि बस हमसफ़र को देखते हैं
हमारी मुलाक़ात साल 2016
जुलाई में हुई थी, जब हम तीनों गणित के सहायक
अध्यापक के तौर पर नियुक्त हुए थे। प्रकाश जौलजीबी और अनिल व मैं जीआईसी बरम में।
तबसे हमारी दोस्ती क़ायम है। बहरहाल काफ़ी जद्दोजेहद और ख़ासकर मेरे व प्रकाश के
बीच चले वाकयुद्धों का नतीजा यह निकला कि 05 अक्तूबर को
विश्वविद्यालय की परीक्षा निपटाने के बाद तक़रीबन 04 बजे
प्रकाश अपने कार्यस्थल से पिथौरागढ़ पहुँच गया। मैं भी सारा सामान- गर्म कपड़े,
टेंट, स्लीपिंग बैग और ज़रूरत की तमाम चीज़ों
के साथ तैयार बैठा था। हम दोनों को शाम तक बरम पहुँचना था- अनिल भाई के कमरे और
मेरे पुराने कार्यस्थल पर। अगली सुबह ट्रेक शुरू करना था। पिथौरागढ़ से लगभग 26
किमी आगे कनालीछीना पड़ता है। यहाँ पहुँचकर एकाएक मुझे कुछ याद आया- मैंने
प्रकाश से कहा, "चेक करो बैग में कैमरे के साथ दूसरी
बैटरी रखी है?” उसने बताया नहीं है। गाड़ी प्रकाश की थी,
चला मैं रहा था। चार्जर रखना भी भूल गया था। चूंकि ट्रेक 3-4
दिन का था इसलिए फ़ोटोग्राफी के लिए कम से कम दो बैटरियाँ जरूरी थीं।
मन मारकर गाड़ी मोड़ी और वापस चल पड़े।
भुलक्कड़ी में होने वाली इस तरह की बेवजह की वापसी बेहद खलती है।
गलती मेरी थी, मैंने आखिरी
वक़्त पर बैग का भार कम करने के लिए कैमरा अपने पिट्ठू में डालना ठीक समझा और इसी
वजह से यह सब हुआ था। प्रकाश तो जैसे मौके के इंतज़ार में था। खरी-खोटी सुनाते हुए
बोला, "तेरी जगह अगर मैंने यह किया होता न भाई, तूने
मुझे सुना-सुनाकर मार देना था! अपना किया है तो जैसे सांप सूंघ गया है।" मैं
वाक़ई चुप था… कहने को कुछ था नहीं। मन ही मन हंसी भी आ रही
थी।
रात लगभग
9:30 बजे हम बरम पहुँचे। अनिल भाई खाना
बनाकर बैठे हुए थे। डिनर के बाद हमारा पहला काम था- अपने-अपने बैगों में सामान
बाँट लेना, क्योंकि यह सफ़र ऐसा था जिसमें रहने और खाने का सारा सामान ख़ुद
ढोकर ले जाना था। बर्तन, गैस बर्नर और ब्यूटेन अनिल भाई
के बैग में, टेंट प्रकाश के और चाय बिस्किट और बाक़ी खाने का
सामान मेरे बैग में। सेहत के मुताबिक़ तुलनात्मक रूप से मेरा बैग हल्का था। रात को
हमने ट्रेक के कुछ यूट्यूब वीडियो भी डाउनलोड कर लिए थे, ताकि
यात्रा में मदद मिले क्योंकि हम कोई गाइड नहीं ले जाना चाहते थे; कारण पैसे नहीं व्यक्तिगत थे।
पहला दिन:
सुबह उठकर हमने अपना-अपना
सामान उठाया और कार में लादकर चलने लगे। मौसम ख़ुशनुमा था। बाहर भी और भीतर भी। प्रस्थान
के कुछ फ़ोटोज़ भी ले लिए।
बरम बाज़ार |
छिपलाकेदार जाने के तीन
रास्ते हैं। पहला बरम से कनार पैदल लगभग 14-16
किमी और फिर उसके आगे बहिमन होते हुए तेजमखाया या तेजमखय्या और फिर
छिपलाकेदार। दूसरा बरम से बंगापानी, बंगापानी से बानडी गाँव
तक सड़क से। उसके बाद पैदल- सुखदो, भनार फिर तेजमखाया। तीसरा
बलुवाकोट से आगे जुम्मा-रांथी वाला रास्ता जिसके बारे में मुझे ज़्यादा पता नहीं
था। हम बंगापानी-बानड़ी-सुखदो-भनार-तेजमखाया-छिपलाकेदार का रास्ता लेने वाले थे।
06 अक्टूबर को अलस्सुबह हमने अपनी मंज़िल के लिए बिस्मिल्लाह किया। ड्राइविंग
सीट पर प्रकाश, बग़ल में कैमरा थामे मैं और पीछे अनिल भाई।
बरम से आगे आड़ी-तिरछी संकरी सड़क है, घास पर दौड़ते साँप जैसी। दायीं ओर चट्टानें,
कहीं-कहीं जंगल या खेत और बायीं ओर रौद्र रूप में बहने वाली- गोरीगंगा, जो जौलजीबी में काली से मिलकर भारत-नेपाल की सीमा बनाते हुए आगे बढ़ती है।
बहरहाल, मौसम साफ़ था और कार में गाना बज रहा था- "इक
रास्ता है ज़िंदगी…जो थम गये तो कुछ नहीं।" नदी के
किनारे-किनारे इसके बोल और वे दृश्य में ताउम्र नहीं भूल पाऊँगा। हम तीनों का
एक्साइटमेंट का लेवल ही अलग था!
नदी: गोरी गंगा |
बंगापानी से तक़रीबन तीन किमी
पहले बानड़ी के लिए रास्ता कटता है, जहां से दूरी लगभग 15-16 किमी थी। ख़स्ताहाल सड़क,
साफ़ हवा, हरे पौधे, सीधे-साधे लोग और छितरे हुए
मकान, यही इस इलाके का अक्स है। बीच में जारा और जिबली नाम के दो गाँव
पड़ते हैं। यहाँ के सरकारी स्कूल की स्थिति देखने लायक़ है। स्कूल के बग़ल में साफ़
पानी का झरना बहता है, क्या दृश्य था!
आख़िरकार लगभग 11:00 बजे हम बानड़ी पहुँचे।
बानड़ी पहुँचते ही गाड़ी ठिकाने लगाकर हम ढूँढते-खोजते पहुँचे
अंकल जी के रिश्तेदार का घर। लाख मना करने के बावजूद अंकल जी ने फ़ोन कर दिया था।
उन्होंने बताया कि हमारे जाने तक खाना तैयार रहेगा। आस पास वालों को भी सूचना दे
दी गई थी, "आप वही
मासाप लोग हैं जो छिपला जा रहे हैं।" पूछते ही लोगों ने मेज़बान का पता बता
दिया।
हिमालय की तलहटी में बसे इस गाँव के लोग कितने ख़ूबसूरत है,
शब्दों में बता पाना मुश्किल है। पहाड़ी ककड़ी और सिलबट्टे पर पिसे नूँण (नमक) से हमारा
स्वागत हुआ। और थोड़ी देर बाद पहाड़ी चावल,
पल्यो (कढ़ी) और रायते के रूप में हम 'मासाप'
लोगों के लिए भोजन परोसा गया।
आँगन पहाड़ी गैंदे के फूलों से भरा था और दीवारों पर तितलियाँ घूम
रही थी। बेलों पर ककड़ी की झाल (बेल) चढ़ी थी और चारों ओर देखो तो बस जंगल ही जंगल।
बेहद सुंदर जगह थी।
खाना खाकर हम अब ट्रैकिंग के लिए तैयार थे। गाड़ी एक किनारे पर
लगाकर हमने स्थानीय लोगों से आगे का रास्ता पूछा तो उनके हाथ धरती से 180 डिग्री लगभग आसमान की तरफ़ उठ गये।
तीनों के पास लगभग 12-15
Kg सामान तो होगा ही। मेरे पास थोड़ा कम था। चढ़ाई चढ़नी शुरू की और
थोड़ी देर बाद ही हाँफ कर बैठ गये। पानी पिया। तीनों एक दूसरे की तरफ़ देखकर
हंसें। ख़ासकर अनिल भाई, उनकी हंसी की बात ही अलग है।
आगे बढ़ने लगे। पानी बचाकर रखना था क्योंकि गाँव वालों
ने हिदायत दी थी आगे पानी 4-5 किमी ऊपर जाकर ही मिलेगा।
घने जंगल शुरू हो चुके थे। मेरी नज़रें जंगली पशु-पक्षियों को खोज रही थीं। कुछ
दिख जाये तो कैमरे में उतारूँ! पर सब ओझल थे। लगभग एक-डेढ़ घंटे के बाद हम एक जगह
पानी के लिए रुके… पर वह भी मिला नहीं। एकदम खड़ी चढ़ाई पर
एक जगह बैठे। ककड़ी निकाली और पिसा नमक चुपड़कर खाई तो थोड़ी हिम्मत आयी और थकान घटी।
आगे का
सफ़र शुरू हुआ। हम गूगल मैप पर ढूढ़ने लगे थे कि कितना और जाना है। आगे थोड़े ढलान के
बाद एक तालाब और भेड़ों का ऊन दिखा।
सुखदो का तालाब |
थोड़ा आगे पहुँचे ही थे कि
कुत्तों के भौंकने की आवाजें आने लगीं। ये देसी नस्ल के कुत्ते थे। चरवाहे अपनी
भेड़ों को चुगाने के लिए इन्हें बुग्यालों में ही रखते हैं। दुआ-सलाम के बाद
उन्होंने चाय बनाई। हम सुखदो पहुँच चुके थे।
"आपके साथ कोई गाइड है?"
"नहीं", हमने जवाब दिया।
"ले जाना चाहिए था।" उनका सुझाव था और उस सुझाव में एक व्यंग्य
भी निहित था- बेटा तुम गये काम से।
हमने आगे चलना शुरू किया तो तक़रीबन 3 बज चुके थे। आगे चलने पर 'जय छिपला केदार' लिखा एक लोहे का गेट दिखाई दिया। अब
केवल घास थी (बाबिल); गुच्छों वाली। इक्के-दुक्के बुरांश
जिसमें केवल पत्तियाँ थीं। रास्ते के दोनों तरफ़ रखे गये पत्थर जो स्थानीय लोगों
ने लगाये थे। हम बानड़ी से ही लगभग 45 डिग्री की चढ़ाई पर थे।
कहीं-कहीं उससे भी ज़्यादा। यहां पानी का नामो-निशान नहीं था।
थोड़ा और ऊपर चढ़ने पर अब बायीं ओर पहाड़ पर दो झोपड़ियाँ दिखाई
दीं। भनार दिखने लगा था। बादल नीचे और हम ऊपर आ गए थे!
ऊपर पहुँचते ही दोनों
झोपड़ियाँ सामने नमूदार हो गयीं। एक में मज़दूर ठहरे हुए थे और दूसरी ख़ाली थी।
प्राइवेसी के लिए हमने सोचा ऊपर वाली में रहते हैं। पर दोनों में दरवाज़े नदारद
थे। ठंड शुरू हो चुकी थी।
सामने पहाड़ी के नीचे भनार मंदिर था और उसी के बग़ल में झुकी हुई
चट्टान के नीचे पिरुल (pine leaves) जिसमें चरवाहे या लोग रात को रुकते हैं।
थोड़ी देर बाद अंदर से एक और सज्जन निकले, जो अनिल भाई को पहचानते
थे। पता चला वह कैलाश जी है। वन विभाग में फ़ॉरेस्टर हैं। उन्होंने बाक़ी मज़दूरों,
जो उन्हीं के साथ थे, को कहा कि खाना तीन लोगों के लिए बढ़ा देना। आज अब खाना
बनाने का झंझट नहीं था। उनसे कुछ आग 'उधार लेकर' हम अपनी वाली झोपड़ी में पहुँचे और
अन्ताक्षरी खेलने लगे। थोड़ी देर बाद कैलाश जी आये और उनसे चर्चा होने लगी। ज्ञान
के मामले में वह यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर्स को भी पीछे छोड़ने वाले थे। ग़ज़ब का
अनुभव था उनका वन्य जीवों और वन्य संपदा का। गोरी गंगा घाटी में दुर्लभ ऑर्किड्स
को बसाने वाले कैलाश जी ही हैं। उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला।
विश्वविद्यालयी सेमिनारों में पैसे की खूब बर्बादी होती है। यदि
उनमें रिसोर्स पर्सन के रूप में कैलाश जी जैसे लोग आएं तो वास्तव में ऐसे सेमिनार
कुछ कारगर होंगे!
बहरहाल
आगे की कुछ टिप्स लेकर और खाना खाकर हम लोग सो गये ताकि जल्दी उठकर सुबह मज़दूरों
से पहले निकल सकें और मोनाल के दर्शन हो जाएं!
दूसरा दिन:
नित्यकर्म से निपटकर सुबह 6 बजे अपने निकलने को ही थे कि मज़दूर
भाइयों ने गरमा-गरम चाय बढ़ा दी। हमें तैयार देखकर कहने लगे,
"थोड़ी देर रुक जाओ। आलू उबाल लिए हैं, बस रोटियाँ बनानी
हैं। नाश्ता करके जाइए।" बड़ी ही सहृदयता से हमने इनकार कर दिया। आगे के
रास्ते का आइडिया लेकर हम बढ़े, तो रास्ता नदारद…!
पत्थरों के ऊपर चढ़ते-फाँदते किसी तरह ऊँची जगह पर पहुँचे। अब
रास्ता दिखाई देने लगा। पेड़ अब पूरी तरह नदारद हो चुके थे। पत्थर, घास और जड़ी-बूटियाँ, यही अब हमसफ़र
थे। मैं आगे-आगे चल रहा था ताकि कहीं मोनाल दिखे तो फोटो ले सकूँ!
एक जगह पर मेरा पैर फिसल गया, पर किस्मत से कैमरा बच गया। अनिल और
प्रकाश काफ़ी पीछे थे। मैं रुक गया। बादल हमसे नीचे घाटी में पसरे हुए थे! सूरज
उगने को था। क्या ही दिलकश नज़ारा था! हमने कुछ फ़ोटोज़ लिए और आगे बढ़ गए।
कुछ दूर निकले ही थे कि पीछे
से मज़दूरों की आवाज़ और शोर सुनाई देने लगा। यह उनका रोज़ का जीवन था। कुछ
ही देर में वे हमारे साथ आ गये। उनके साथ भी हमने कुछ फ़ोटोज़ लिए। उन्हें ट्रेक
के बीच का रास्ता दुरुस्त करना था,
जो टूट गया था। वहाँ रास्ता क्रॉस करना सच में बहुत मुश्किल था।
लगभग 45 डिग्री की ढलान पर वे लोग काम कर रहे थे। मजदूर
साथियों से विदा लेकर हम आगे बढ़े।
थोड़ा आगे चलने पर अचानक एक
चट्टान पर मोनाल दिखाई दिया। मगर पत्थर के पीछे छुपे होने के कारण मैं उसकी फोटो
नहीं ले पाया। फिर वह उड़ गया। मोनाल की ख़ूबसूरती उसे उड़ते देखने में ही है।
शायद तब वह स्वतंत्र महसूस करता होगा। इंसान के साथ भी तो यही होता है। जब वह
स्वतंत्र होता है, चाहे किसी पेशे में हो या अपने निजी जीवन या संबंधों में, उसकी ख़ूबसूरती तभी दिखती है। स्वतंत्रता
ही ख़ूबसूरती का पर्याय है।
हम तीनों ने ऊपर पहाड़ी पर चढ़ना तय किया। आज दिन भर का समय है तो
वहीं आराम करेंगे। एक गुफानुमा पत्थरों में हम अपने बैग रखकर और अपना टेंट, बर्नर, मैगी और
पानी लेकर ऊपर चढ़े। एक जगह पर टेंट खोला ही था कि प्रकाश बोल उठा, "यार,
उस सामने की धार में चलते है। वहाँ लगाते है टेंट अपना।" इस
मामले में वह बहुत ज़िद्दी है। कुछ सुनने को तैयार नहीं होता। इसलिए हम चल पड़े।
अचानक मेरा पैर एक गड्ढे में घुटने तक धँस गया। कोहनी पत्थर पर लगी थी और मैं कराह
उठा। दोनों मित्र आये। मेरी हालत ख़राब थी। मुझे लगा था कहीं हड्डी न टूट गई हो।
बहुत दिनों तक वह दर्द रहा…!
हमने नाकौना टॉप पर टेंट लगाया। डीडीहाट या कनालीछीना से छिपला
केदार की तरफ़ जो सबसे ऊँचा टॉप दिखता है वही है नाकौना टॉप। बर्नर में मैगी बनने
लगी। ऐसी जगहों पर मैगी का स्वाद और बढ़ जाता है।
सबने मैगी खायी और मैं तो तत्काल
टेंट के अंदर सो गया। साथियों का पता नहीं। शायद वे बातें करने लगे हों। लगभग 2 घंटे बाद मैं उठा। हम लोग बात करने
लगे। "यार, आगे भी ऐसा ख़ास क्या होगा! यहीं जैसा तो
होगा," अनिल भाई ने कहा। ये संकेत थे कि अब हिम्मत टूट रही है…। मैंने भी हाँ में हाँ मिलायी। प्रकाश को इस बात से हमेशा कोफ़्त होती है
कि ये दोनों हमेशा एक दूसरे का बचाव करते हैं। हिम्मत सच में ऊपर चढ़ने की अब मेरी
भी नहीं थी। ऊपर न चढ़ पाने से ज़्यादा मलाल, हमें अपने जलील
होने का था! यह डर तीनों के अंदर था। अख़िरकार तय किया कि वापस भनार चला जाये और
कल वापस। नाकौना टॉप से नीचे उतरना शुरू किया।
नाकौना टॉप |
अचानक हमें नीचे से तीन लोग आते
दिखाई दिये। हमने उन्हें हाथ हिलाया। उन्होंने भी जवाबी कार्यवाही की। ट्रैकिंग की
एक ख़ूबसूरत बात यह भी है कि इनमें आप सामने वाले के लिंग, जाति, धर्म,
राष्ट्रीयता... फ़लाँ फ़लाँ
पहचानों से बाहर आकर एक दूसरे को बस इंसान की तरह देखते है। नीचे पहुँचकर उन्हें
देखते लगा कि इसमें दो ट्रेकर है और एक गाइड। मंज़िल- छिपला केदार।
हमारे कमज़ोर इरादों को उड़ाते हुए उन्होंने कहा, "अरे! चलो
यार सब लोग साथ चलते हैं।" कठिन रास्ते चाहे जीवन के हों या ऐसे कठिन ट्रैक्स
के, ऐसे दोस्त आपका कॉन्फ़िडेंस ग़ज़ब का बूस्ट कर देते है। मतलब
हौसलाअफ़ज़ाई का डबलडोज़!
बात करने पर पता लगा कि उनमें से ट्रैकर केवल एक है। दो लोग
गाइड हैं। जीवन (मेरे स्टूडेंट्स की तरह) और डिगर भाई बानड़ी के हैं और संजीव सर
कुमाऊँ विश्वविद्यालय के असिस्टेंट रजिस्ट्रार! समान पेशे में होने के कारण मैं
संजीव सर से बातें करते हुए आगे बढ़ने लगा और मेरे दोस्त उन दोनों साथियों के साथ।
यहाँ से रास्ता ढलान पर था। आख़िरकार हम तेजमखय्या पहुँचे। सीधे रास्ते से नीचे एक
चट्टान की ओट में वन विभाग द्वारा पत्थरों से चिनी गयी एक झोपड़ी यहाँ एक मात्र
आशियाना है। एक बड़ा कमरा और दूसरा किचननुमा छोटा। नये लोगों को ढूढ़ने में दिक़्क़त
हो सकती है। आसानी से दिखती नहीं है। और पानी!
शुक्र था कि हमारे साथ अब एक लोकल गाइड भी थे। वरना पानी ढूढ़ना
इस पहाड़ी पर कीड़ाजड़ी (यारसा-गुंबा) ढूढ़ने से भी ज़्यादा मुश्किल है। सुखदो में
चरवाहे भाइयों ने कहा था साहब वहाँ पानी बस एक जगह पर है, थोड़ा नीचे जाकर। लोहाघाट के कुछ
ट्रेकरों को दिन भर ढूढ़ने पर भी नहीं मिल पाया था!
डिगर भाई के साथ अपनी बोतल
लेकर मैं और प्रकाश भी चल पड़े। सच में अगर वह न होते तो पानी का स्रोत हमें
भी नहीं मिल पाता!
एक कोने में एक जगह पर एक छोटे पत्ते के सहारे इतना पानी आ रहा था
कि दो लीटर की बोतल भरने में 15 मिनट लगे। बोतल भरकर हम चल पड़े। झोपड़ी के अंदर टेंट लगाया और सामान
खोला। वे तीनों किचन में जाकर अपने लिए कुछ पकाने लगे।
मैंने प्रकाश भाई से कहा कि यार पानी की और ज़रूरत पड़ेगी, ले आते हैं। हम उस तिरछी ढलान पर
पौधों का सहारा लिए गधेरे तक पहुँचे। बर्तन लगाया ही था कि अचानक तेज़ बारिश शुरू
हो गई। सर छुपाने के लिए हम एक चट्टान की आड़ में हो लिए। वह शायद कीड़ा-जड़ी (अप्रैल-मई)
लेने आने वालों का अस्थायी आशियाना होगा। इसलिए व्यवस्थित था। पिरुल बिछा हुआ था। बारिश
कम होने का नाम नहीं ले रही थी। थोड़ी कम हुई और जैसे ही हम निकले ही थे कि फिर
तेज़! भागते हुए हम अपनी झोपड़ी तक पहुँचे। पैंट और जैकेट भीग चुके थे, जिन्हें हमने
दरवाज़े पर टांग दिया। बस जो एक जोड़ी कपड़े बाकी थे वे पहन लिए। जूते भी भीगे थे।
अब खाने के लिए रात की जुगत करनी थी…।
आज का डिनर दाल-चावल था। पतीले में उबाली मल्का की दाल जिसमें
मसालों के नाम पर केवल नमक था। बाद में परोसते वक़्त एक चम्मच घी और साथ में
ककड़ी! लेकिन यहाँ ऐसा खाना भी बेहद लज़ीज़ महसूस हो रहा था। होना ही था…और कोई विकल्प नहीं था। पड़ोसियों के
पास अपने 'रेडीमेड फ़ूड' थे।
साथियों से बात करके तड़के 4 बजे चढ़ाई का वक़्त मुक़र्रर हुआ। यही
असली जंग थी। बातें करते-करते कब नींद के आग़ोश में चले गये पता नहीं चला।
तीसरा दिन
सुबह पहले 3:30 का अलार्म स्नूज़ पर डालने के बाद
जब 3:45 पर फिर बजा तो न चाहते हुए भी उठना पड़ा। देर से यात्रा
शुरू होने का सबसे बड़ा नुकसान रास्ता भटकने में हो सकता है। बाहर आकर देखा तो
आसमान साफ़ था। जल्दी-जल्दी अपने कामों से निपटे। पड़ोसी मित्र पहले से तैयार बैठे
थे। अनिल भाई और मैं भी जल्दी-जल्दी तैयार हुए। चाय प्रकाश ने बनाई। पर प्रकाश
बाबू आदतन अंतिम समय में कुछ अजीबोग़रीब न करें तो वह प्रकाश कहाँ!
जब पड़ोसी मित्र हमसे लगभग 500-600
मीटर ऊपर चढ़ चुके थे, प्रकाश को याद आया कि
उसे 'ब्रश करना है'! यूँ तो ब्रश हमने
भी नहीं किया था पर साहब का करना ज़रूरी था! अनिल और मुझे सच में ग़ुस्सा आने लगा
था। फटाफट आगे बढ़े हम…!
उन लोगों की टॉर्च जैसे आसमान से चमक रही थी। वे काफ़ी आगे निकल
गये थे। हम तीन सही रास्ता खोजने के लिए भी मशक़्क़त कर रहे थे…। क़रीब घुटने और कमर तक मिली जुली
घास से कपड़े गीले हो रहे थे। खुशकिस्मती से मौसम साफ़ था इसलिए ख़ुशी थी। ऑक्सीजन
का स्तर कम था। और गीली मिट्टी में हिमालयी जड़ी-बूटियों की महक घुली सी महसूस हो
रही थी। एकदम खड़ी चढ़ाई थी। फिसलने का डर भी था। अनिल भाई को ज़्यादा डर लग रहा
था…। उनका यह पहला ख़तरनाक ट्रैक था। वह आज भी इस यात्रा को
यादकर सिहर उठते हैं…!
पड़ोसी मित्रों ने ऊपर हमारा इंतज़ार किया। लगभग 1 घंटे चलने के बाद हम लोग फिर से साथ-साथ
थे। ठंड काफी थी। अख़िरकार जब सामने की तरफ़ की पहाड़ियों पर लाल रोशनी की आभा
खिलने लगी तो थोड़ा रुकने का मन हुआ…! इन दृश्यों को कैमरे
में क़ैद करने का लोभ संवरण नहीं होता था।
नीचे बादलों का बड़ा बाज़ार
सजा हुआ था। छिपलाकेदार के इन्ही दृश्यों को देखकर मेरा मन इस ट्रैक के लिए ललचाता
था। सच में इतना खूबसूरत दृश्य मैंने पहले कभी नहीं देखा था। यहाँ से कुमाऊँ और
गढ़वाल दोनों क्षेत्रों की कई चोटियाँ दिखाई देती हैं। हालाँकि भनार से भी नंदाकोट
शिखर सामने दिखना शुरू हो जाता है।
हाल के वर्षों में गोरी-काली घाटी के लोग कीड़ाजड़ी लेने मई-जून
में बर्फ पिघलने के बाद इस क्षेत्र में आते हैं। कीड़ाजड़ी एक सहजीवन (Symbiosis) है, जिसमें
एक कीड़े के लारवा के ऊपर फ़ंगस जम जाता है। चीन के बाज़ारों में इसकी बहुत डिमांड
है। कीड़ाजड़ी ने उत्तराखंड के उच्च हिमालयी गांवों की जीवन-शैली और जीविकोपार्जन
में बहुत उलटफेर किया है। तफ़सील से जानने के लिए आप अनिल यादव का यात्रा-वृत्तांत
'कीड़ाजड़ी' पढ़ सकते हैं। उसमें इसका
पूरा इतिहास और वर्तमान उल्लिखित है।
हम लोगों ने आगे बढ़ना शुरू
किया। मैं थोड़ा आगे चल रहा था और मेरे पीछे अनिल भाई और बाक़ी लोग उनके पीछे।
यहाँ मोबाइल नेटवर्क उपलब्ध था। प्रकाश भाई अपने सगे-संबंधियों को वीडियो कॉल करके
अपनी उपलब्धियां दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। उनका यह सिलसिला देर तक चलता
रहा।
खड़ी चढ़ाई पर रास्ता |
यहाँ की एक मिथकीय कथा, जिसे
वो सोलह आने सच मानते हैं, उसपर मुझे हंसी आयी। जीवन ने कहा, "सर आप
मानो या न मानो, पर यह सच है।" कहानी की पुष्टि के लिए उसने
सामने टूटे-फूटे बड़े-छोटे पत्थरों की ओर इशारा करते कहा, "यहाँ दानवों और देवताओं की लड़ाई हुई थी और देवताओं ने उन पत्थरों को अपनी
हथेली से ऊपर धकेल दिया था; इसलिए वह देखो हथेली का निशान और
ऊपर लटके पत्थर!"
स्टेबल इक्विलब्रियम में लटके पत्थरों के लिए धार्मिक स्थानों पर
हर जगह ऐसी कहानियाँ मौजूद होती है जिसमें अधिकांश लोग यक़ीन भी करते है। पर जीवन
भाई का पाला इस बार टक्कर के आदमी से था!
पता चला इतनी ऊँचाई पर
आकाशीय बिजली (लाइटनिंग) बहुत गिरती है,
जिससे चट्टानें टूट जाती हैं। दरारों में भरे पानी के बर्फ में
बदलने से आयतन बढ़ जाने से उत्पन्न दबाव भी कारण हो सकता है।
थोड़ा आगे चलकर लगभग सूखे ब्रह्मकमलों के बीच कुछ फूल ज़िंदा भी दिखे।
हम लोग पहली बार अपने राज्यपुष्प को सामने देख रहे थे। यहाँ केवल सूखी घास थी…पत्थर थे… हमारी
मंज़िल अब भी दूर थी।
छिपलाकेदार यात्रा गोरी-गंगा
घाटी के सवर्णों की जात-यात्रा है। इस पर उनका एकल अधिकार है। सितम्बर-अक्तूबर में
होने वाली इस यात्रा में पुरुष और बच्चे जिनका मुंडन/जनेऊ होना होता है, वे पूरी यात्रा
में नंगे पैर शामिल होते हैं, चाहे बर्फ़ ही क्यों न गिरे। महिलाओं को सुखदो से ऊपर जाने की सख़्त मनाही
है। मैं हैरान था कि इस क्षेत्र के युवाओं को भी यह कहने में गर्व महसूस होता है
कि इस स्थान पर महिलायें और 'वे लोग' नहीं
आ सकते! ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता का ऐसा मजबूत गठजोड़ आपको भारत में कम ही स्थानों
में मिलेगा। अफ़सोस है कि पढ़े लिखे युवा भी इस अन्यायपूर्ण ब्राह्मणवादी परंपरा
पर गर्व करते हैं। यह असल भारत की वह तस्वीर है जिसकी अधिकांश लेखक और अख़बार
जानकर भी अनदेखी करते हैं और इस पर टिप्पणी करने से बचते हैं।
आख़िरकार 10 बजे लगभग हम 4600 मीटर की ऊँचाई पर थे। इंटरनेट
पर आपको अलग-अलग स्रोतों पर इसकी ऊँचाई अलग-अलग दिखेगी।
अब हमारे सामने काकरौल कुंड था। कुंड का पानी लगभग नीला-काला था, इसलिए
इसे असुरों का कुंड भी कहते हैं। हमने सामान टिकाकर बर्नर निकाले और चाय बनाना
शुरू किया। संजीव सर फोटोग्राफी के लिए दूर चले गये थे। मैं भी सामने की कुछ फोटो
लेने लगा। जूते उतारकर नंगे पैर खिली धूप में चट्टानी पत्थर पर बैठने का सुख कुछ
अलग ही था…!
काकरौल कुंड |
चाय पीने के बाद हम छिपला
कुंड की ओर बढ़े। सीधा रास्ता था। थकान के कारण वहाँ पहुँचने में लगभग 20 मिनट लग गये। लोहे के गेट पर एक दो
फोटो खिंचवाने के बाद सभी ज़मीन पर पसर गये। एक दो फोटो लेने के बाद मैंने अपना
कैमरा हाइपरलैप्स मोड में ट्राईपोड पर सेट कर दिया। सामने बादलों का उमड़ना-बिखरना
वाक़ई देखने लायक़ था। चारों ओर सूखी चट्टाने, सफ़ेद पहाड़
और लंबे-चौड़े बुग्याल थे।
सुबह से इतना चल चुके थे कि अब हम बिना पेट-पूजा किये आगे रेंगने की स्थिति में भी नहीं थे। संजीव सर और जीवन भाई कुंड की परिक्रमा में लीन थे और प्रकाश भाई भी उनके साथ हो लिए। अनिल, मैं और डिगर भाई घास पर लेटे रहे। डिगर भाई बड़े कमाल के ज़िंदादिल इंसान हैं। सीजन में कीड़ाजड़ी और गाइड ही उनका मुख्य कार्य है।
छिपला कुंड |
सोचा था यहीं मैगी बनाई
जाएगी। बर्नर ले आये थे मैगी रखने का जिम्मा प्रकाश भाई का था पर ब्रश करके 'ताज़ा होने' के
चक्कर में वह सब वहीं भूल गये जिसका इल्ज़ाम उन्होंने, "तुम दोनों को इतनी जल्दी थी" पर मढ़ दिया। बहरहाल…हमारे पड़ोसी मित्र अपने साथ मैगी के अलावा ब्रेड का एक पैकेट भी लाए थे।
इसलिए डिगर भाई की ज़िद पर 'ना-ना बस हो गया की' फ़ॉर्मलिटी के
बावजूद मैंने 3-4 स्लाइस हज़म कर ही लिए।
छिपला कुंड ज़्यादा गहरा नहीं है। मेरे लिए तो यहां का पानी भी
बिना उबाले पीना असंभव था। कुंड के चारों ओर अगरबत्ती के खाली पैकेट और अपने
पितरों की याद में अर्पित की गई तमाम वस्तुएँ;
जैसे लाठी, चश्मा और बाल उतारने के लिए
प्रयुक्त ब्लेडों की भरमार थी। पूजा सभी को करनी है पर सफ़ाई से हमें परहेज़ है! भारत
में लगभग सभी धार्मिक स्थलों का यही हाल है तो यह जगह भला जहालत में कैसे पीछे
रहती!
लगभग 12 बजे हम लोगों ने लौटना शुरू किया। प्रकाश और जीवन भाई ने दूसरा रास्ता
पकड़ा, क्योंकि जीवन भाई ने संजीव सर से 'ताज़े ब्रह्मकमल'
दिलवाने का वायदा किया था, जो निभाया भी…। वे हमें नीचे मिले, जब वे एक पहाड़ी के पीछे से होकर आये थे। वहाँ उस
मौसम में भी हरे ब्रह्मकमलों का संसार बिखरा पड़ा था। बस हम ख़यालों में उसकी
कल्पना कर पाये थे।
वापसी में तेजमखय्या से अपना सामान बांधकर हम फटाफट निकले थे।
मौसम घिरने का संदेह अब यक़ीन में बदलने को था। रास्ते में जीवन भाई ने मोनाल
दिखाया जो मेरे 50-250 mm लेंस की रेंज से बाहर था। फिर भी मैं तस्वीर लेने की पूरी कोशिश की।
अभी भनार 3-4 किलोमीटर दूर था कि बारिश शुरू हो
गई। हमने अपने रेनकोट डाल लिए। डिगर भाई हमसे काफ़ी आगे निकल चुके थे। रुकने के
लिये यह जगह मुफ़ीद नहीं थी इसलिए चलते रहना ही एकमात्र विकल्प था। जितना चल रहे
थे, सफ़र उतना ही लम्बा महसूस हो रहा था। अचानक सामने देखते
हैं कि डिगर भाई के हाथ और बैग में ख़ूब सारी घास भरी थी…! यह
गुग्गुल थी। उन्होंने सबको बाँटी। स्थानीय लोग इसका उपयोग धूप (अगरबत्ती) की तरह
करते हैं। वे कहते हैं इसको घर में जलाने से सांप-कीड़े नहीं आते। उसकी ख़ुशबू
वास्तव में कमाल थी। मैंने भी बैग के बाहरी हिस्से में कुछ खोंस ली।
अब रात घिरने लगी थी। रास्ता नीचे की ओर और फिसलन भरा था…। लेकिन उसके निशान नहीं दिखाई दे रहे
थे। टॉर्च के उजाले में भी रास्ते की लीक खोज पाना मुश्किल हो रहा था। हमारे कपड़े
भीग चुके थे। अचानक जीवन भाई पीछे से प्रकट हुए और कहा मेरे पीछे आओ…। सामने भनार दिखाई देने लगा था पर रास्ते का अंदाज़ा जीवन भाई को भी नहीं
था। किसी तरह अंततः हम रास्ते में नीचे पहुँच गये थे। अब बारिश में ऊपर चढ़ना था झोपड़ी तक पहुँचने के लिए…।
झोपड़ी में पहुँचते ही बैग एक किनारे फेंककर हम सब आग के पास बैठ
गये। गीले कपड़े एक खूँटी पर टांग दिये। मज़दूर भाई हमारे लिए फ़रिश्तों से कम
नहीं थे। उन्होंने चाय बनाई, तो थोड़ा राहत मिली।
हमने जता दिया कि एक कोना ही सही पर हम सोएंगे यहीं। ऊपर वाली
झोपड़ी की ठंड को यादकर हमें कंपकंपी छूट रही थी। आख़िरकार दाल-चावल खाने के बाद
थोड़ा सुध आयी। अनिल भाई और प्रकाश हाइपोथर्मिया की कंडीशन में आ चुके थे। मैंने
तीनों के बर्तन बाहर ले जाकर लाइट की स्पीड से धोये और वापस ले आया। बहुत सारे
ट्रैक किए थे पर ऐसी थकान और हालत पहले कभी नहीं हुई थी…!
मज़दूर भाइयों ने कोने की लकड़ियों के ढेर को बाहर रखकर हमारे
सोने के लिए जगह बना दी थी। श्रमजीवियों जितना शुक्रिया अदा करें कम होगा। ये लोग
दुनिया के असली पालनहार हैं। अगली सुबह हम उठे तो बस अब यही दिमाग में था… किसी तरह अपने घर पहुँच जाएं। सबसे
विदा लेकर और धन्यवाद कहकर हम वापस चले। अपना बचा सामान मज़दूर भाइयों के हवाले किया।
आज पैर ख़ुद-ब-ख़ुद अपना रास्ता ढूँढ रहे थे।
यह सफ़र सच में आसान नहीं था। इतनी ऊँचाई पर अपना सामान ख़ुद ढो
कर ले जाना वाक़ई मुश्किल था। एवरेस्ट चढ़ने वाले शेरपाओं के लिए सोचकर ही दिल में
इज्जत और बढ़ जाती है। यह ट्रैक अभी कमोबेश अनछुआ है इसलिए इसकी ख़ूबसूरती बची हुई
है। मेरी कई महिला मित्र भी यहाँ जाना चाहती हैं। पर लोगों की धर्मांधता उनके पैरों
में बेड़िया डाल देती है, जिसे तोड़पाने वाली आरी ईजाद करना प्रशासन और सरकार दोनों के लिए मुश्किल
है। प्रगतिशील कहलाने वाला सवर्ण तबका भी इस अन्याय पर चुप्पी साधे रखता है। युवा
जातीय गौरव और दंभ में चूर होकर अपनी ऑर्थडाक्सी के समर्थन में खड़े दिखाई देते हैं।
इसलिए आख़िर में उन महिला-मित्रों और स्थानीय तथाकथित निचले तबक़े
की आवाज़ के एवज़ ग़ालिब का यह शेर ज़रूर याद आता है:
रही ना
ताक़त-ए-गुफ़्तार, और अगर हो भी
तो किस
उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है!
हर एक
बात पे कहते हो 'तुम'
कि तू क्या है?
कुलदीप , पढ़कर बहुत ही शानदार अनुभव हुआ ऐसा एहसास हुआ कि अब कुमाऊं का तत्काल घूमने का प्लान तैयार करें और चले जाएं, आगे भी उम्मीद है निरंतर ब्लॉग पढ़ने के लिए मिलता रहेगा। दीपक जी से भी से भेट करने है।
जवाब देंहटाएंशानदार यात्रावृतांत ।
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है बहुत शानदार यात्रावृत्त
जवाब देंहटाएंसुंदर यात्रा वृतांत
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार sir ji। इसी यात्रा की चर्चा और जानकारी लेने के लिए आपसे मुलाकात हुई थी । अब देखो कब हो पाता है वहां जाना। 🙏🏼🤗
जवाब देंहटाएंशानदार और ठहराव के साथ लिखा गया यात्रावृत्त जो यात्रा के साथ ही समाज के अनकहे पहलुओं पर रोशनी डालने का काम भी करता है। यूं ही लिखते रहिए।
जवाब देंहटाएंSo knowledgeable so intresting....
जवाब देंहटाएंAnd so thrilling ... Wow .❤️❤️
Shandar
हटाएंभैया बहुत रोमांचित हुआ पढ़कर । मेरे जन्म से 1 साल होने तक मेरा प्रारंभिक बचपन चमोली के नारायण बगड़ ब्लॉक में बीता इसलिए पहाड़ों की कहानियाँ सुनकर मन प्रफुल्लित और आनंदित हो जाता है ।
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