अपनी अपनी प्राथमिकताएँ!

 ज्ञान और अज्ञान:अपनी अपनी प्राथमिकताएँ 

21 अक्टूबर 2024 को विज्ञान प्रसार बंद कर दिया गया।हालांकि यह निर्णय सितम्बर 2023 में केंद्र सरकार द्वारा लिया गया था। बताते चलूँ कि विज्ञान प्रसार बीते ज़माने की इक संस्था हुआ करती थी जो 1989 में आम लोगों तक विज्ञान और वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गयी थी।तब यह एक सोसाइटी के रूप में बनायी गयी थी जो बाद में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के द्वारा नियोजित एक स्वायत्त संस्था बनी।विज्ञान का जन जन तक प्रचार इसका मुख्य उद्येश्य रहा।

साल 2011 में मैंने पहली बार इस संस्था के बारे में अपने एक साथी से जाना।उस दौर में इंटरनेट आम लोगों तक बस अपने पैर पसार ही रहा था।एक सादे काग़ज़ पर विज्ञान प्रसार को एक चिट्टी लिखी और जितने बच्चों को मैं तब पढ़ाता था सबके नाम लिखकर सूचित किया कि एक विज्ञान क्लब बना रहा हूँ।साधारण डाक से ही भेजा।लगभग दो महीने बाद वहाँ से कुछ विज्ञान पर किताबें और DREAM 2047 आनी शुरू हो गयी। DREAM 2047 एक द्विभाषी पत्रिका थी।ग्लॉसी काग़ज़ पर एक ओर से हिन्दी और दूसरी ओर से अंग्रेजी में छपी होती थी।विज्ञान की नयी खोजें और आधारभूत विज्ञान पर शानदार लेख होते थे। विज्ञान प्रसार के ही बदौलत पहली बार जम्मू में एक सेमिनार में शरीक़ होने का मौक़ा मिला।सेमिनार था- "चमत्कारों के पीछे छिपा विज्ञान" पूरा उत्तर भारत इसमें शामिल था।रहना-खाना और यहाँ तक कि आने जाने का किराया तक विज्ञान प्रसार ने दिया था।आज घर पर रखी तब की DREAM 2047 पर नज़र पड़ी तो ये सब चीज़ें ज़ेहन में अनायास आ गयी।

कुछ समय पहले सोचा कि अपने वर्तमान पते पर भी मंगवा लूँ ताकि छात्र-छात्राओं को भी यह सुलभ हो।परंतु गूगल पर विज्ञान प्रसार का पन्ना ही गायब था।अलग अलग कीवर्ड्स से ढूँढने पर जो  ख़बर हाथ लगी वह है जिससे इस  लेख की शुरूआत की है।

दूसरा एक और किताब जिस पर आज मेरी नज़र पड़ी वह थी- 'नन्हे मुन्नों के लिए भौतिकी'- लि. सिकारुक (मीर प्रकाशन मास्को, रूस)। यह किताब मेरे लिए हमारे एक अग्रज साथी ने भेजी थी ताकि मैं बच्चों को इससे कुछ सिखाऊँ।1987 में रूस (तब सोवियत संघ) में ही इसका अनुवाद हिंदी में किया गया।एक ज़माने में भौतिक विज्ञान के लिए 'आई. ई. इरोडोव' एक उच्च मानक रखती थी जो इसी प्रकाशन की किताब थी।

बहरहाल, 1960 के दशक में भारत और सोवियत संघ के बीच रिश्तों के कारण और शीत युद्ध के दौर में दूसरे देशों में अपना वैचारिक प्रभाव बढ़ाने के लिए मॉस्को के कई पब्लिशिंग हाउस द्वारा भारत से अनुवादकों को वहाँ बुलाया गया।अपने ही खर्च पर विभिन्न भारतीय भाषाओं में वहाँ की श्रेष्ठ किताबें चाहे वो साहित्य पर हो, बाल साहित्य या विज्ञान; कई सारी बेहतरीन किताबें भारत पहुँची।बहुत कम क़ीमत पर वह साहित्य आम लोगों तक सुलभ करवाया गया। किर्गिज़ लेखक चिंगीज़ आइत्मातोव की लिखी 'Duishen' का अनुवाद 'तमस' जैसी किताब के लेखक भीष्म साहनी ने किया।हिंदी में यह 'पहला अध्यापक' नाम से अनूदित है।गोर्की, टॉलस्टॉय, तुर्गनेव, शोलोकोव जैसे लेखकों की किताबें यहाँ सुलभ हुई।

…ये उस दौर की प्राथमिकताएँ थी।कम से कम शिक्षा और विज्ञान भले ही प्रमुख ना रहा हो पर कम से कम उसका 'अस्तित्व' था।भारतीय विज्ञान कांग्रेस प्रतिवर्ष अपने आयोजन करता था जहाँ वैज्ञानिक जुटते और विमर्श होते।

महात्मा गाँधी कहते थे- "किसी देश को बदलना है तो वहाँ की शिक्षा को बदल दो"  अब वो दौर जो कभी था बदला जा रहा है।एनसीईआरटी ने अपनी किताबों में ताबड़तोड़ फ़ेरबदल कर दिए है।इतिहासकारों का कहना है कि अब जो 'नया इतिहास' लिखा गया है वह झूठ से भरा हुआ है जिसे असल में मेनीप्युलेट किया गया है।भारत में वैज्ञानिक चिंतन के पतन के लिए कई वैज्ञानिक 'चिट्ठी' लिख चुके हैं तो 'नेचर' जैसी संस्था भी अपनी शंका ज़ाहिर कर चुकी है। विज्ञान प्रसार तो बंद किया ही जा चुका था और अब इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन (ISCA) को भी  Emerging Science, Technology and Innovation Conclave (ESTIC) द्वारा बदल दिया गया है।नवम्बर 2025 में इसकी पहली बैठक होनी है।

इसका क्या खाँका होगा और यह कैसे काम करेगी यह देखा जाना बाक़ी है।

बहरहाल, सरकारों की अपनी अपनी प्राथमिकताएँ हैं। किसी के लिए ज्ञान को आगे बढ़ाना मक़सद था तो किसी के लिए दुबारा वापस 'पहिये की खोज करना!"

ख़ैर, आख़िर में इस शेर के साथ यह बात ख़त्म करता हूँ- 

"इब्दिता-ए-इश्क़ है रोता है क्या,

आगे आगे देखिए होता है क्या- मीर तक़ी मीर"

इस वक़्त पर इससे बढ़िया शेर क्या हो सकता है!

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