Homebound: आगे क्या लिखते हो!

 

नीरज घेवान 'मसान’ जैसी दमदार फ़िल्म भारतीय सिनेमा को दे चुके है।होमबाउंड उनकी प्रतिभा की अगली कड़ी है।नीरज मुझे आज के श्याम बेनेगल नज़र आते है। उनकी कहानियाँ हमेशा आपके आस पास  और समाज के निम्न मध्यमवर्ग के हिस्से की होती है।

इस फ़िल्म का बेसब्री से इंतज़ार था, तब से जब से जब से इस फ़िल्म के बारे में पता था।21 नवम्बर को यह आख़िरकर ओटीटी पर आ गयी।

फ़िल्म का मुख्य पहलू 'पहचान' है।वह पहचान आपकी कमाई पहचान नहीं है।यहाँ 'पहचान' आपके नाम की है।मतलब आपके जन्म की पहचान से है।नीरज का मार्टिन स्कोर्सेज़ के साथ एक इंटरव्यू है जिसमें वह शेक्सपियर के 'नाम में क्या है?'वाली बात पर कहते है-"शेक्सपियर को भारत आना चाहिए, वो देखते कि यहाँ नाम कहते ही आपके प्रति धारणा तय हो जाती है"

फ़िल्म होमबाउंड में कई दृश्य है जिसमें पहचान और उसे पहचान को देखते  ही उपजती नफ़रत सामने वाली आँख में नमूदार होती है।ऑफिस वर्कर 'शोएब' से कहना कि कल से तुम हमारा बोतल मत भरना हम ख़ुद भर लेंगे…और तुरन्त उसके बाद "अपना काम ख़ुद करना चाहिए ना! इसलिए कह रहे हैं" दिल की उपजती इस नफ़रत की भरपाई के लिए किया यह ढोंग आपको नाम के पीछे की नफ़रत से रूबरू करवाता है।

अपने देश में हर मज़लूम तबके को यही लगता है कि एक सरकारी नौकरी पा जाने से उसकी यह 'नाम की पहचान' शायद अब 'काम की पहचान' बन जाएगी पर ऐसा होता नहीं है।रेलवे भर्ती के परिणाम पूछने पर जब चन्दन, जो फ़िल्म का दूसरा मुख्य किरदार है; अपना नाम बताता है तो सामने वाला कहता है "आगे क्या लिखते हो?” यह ऐसा सवाल है जिससे बहुत से लोग रोज़ गुज़रते हैं।जब चन्दन कहता है हम जनरल से हैं तो सामने वाले के दिल में बसी नफ़रत एक बार फिर दिल खोल के अपना असली चेहरा दिखाती है।ये 'आगे क्या लिखते हो?' वाला सवाल मुझसे तब पूछा गया था जब मैं 'उच्च शिक्षा विभाग' में नियुक्ति के लिए गया था।एक वरिष्ठ प्राध्यापक ने पूछा था कि "इसके आगे क्या लिखते है?" उसी समय महसूस हुआ था कि उच्च शिक्षा में उच्च असल में कुछ है नहीं।

बहरहाल, होमबाउंड में कई दृश्य है जो झकझोरते हैं।जब एक स्कूल में चंदन की माँ के हाथों का भोजन खाने से वहाँ के बच्चे मना कर देते हैं क्योंकि उनके माँ बाप ने मना किया है।हालाँकि वहाँ के प्राचार्य जो ख़ुद सवर्ण है इस मनाही पर आपत्ति जताते हैं।इसलिए हर सवर्ण आदमी अपना जातीय अहम् लिया हो ऐसा नहीं है। लेकिन इस दृश्य के बाद का दृश्य पूरी फ़िल्म का सबसे दमदार दृश्य लगता है।वह है- 'चन्दन की माँ का अपने खपरैल लगी दीवार पर टँगी डॉ अंबेडकर की फोटो को एकटक देखना' यह दृश्य अपने आप में पूर्ण है, जैसे वह महिला अंबेडकर से पूछ रही है क्यों बाबा साहब देख लिया आपने? संविधान ने रोटी का तो हक़ दिया पर इज्जत यह समाज आज भी हमें नहीं दे पाया!

कोरोना में मजदूरों की स्थिति को भी बड़ी मार्मिकता से यह फ़िल्म उजागर करती है।दो दोस्त एक मुस्लिम और एक दलित किन स्थितियों में संघर्ष करते है और आख़िर एक का यह सफ़र पूरा नहीं होता।

एक और दृश्य जो जाति के भीतर भी पितृसत्ता पर चोट करता है वह है-जब चन्दन की बहन कहती है,"हम सब में से केवल तुम्हें चुनने का मौक़ा मिला चन्दन, पढ़ना तो हम भी चाहते थे लेकिन मजदूरी कर रहे हैं।"

नीरज घेवान मसान, गीली पुच्ची के बाद होमबाउंड में भी समाज की असलियत को लिए फिरते हैं।भारतीय समाज की वो सच्चाई जो ओमप्रकाश वाल्मीकि, शरणकुमार लिंबाड़े, भालचंद नेमाड़े से होते हुए भंवर मेघवंशी तक का अनुभव रही और देश में आज भी  इससे वह तबक़ा हर रोज़ गुज़रता है- "आगे क्या लिखते हो?"

अपनी संस्कृति पर गर्व करने वाला तबका इस बात पर अपनी आँखे मूँद लेता है और अपना सर रेत में धँसा लेता है जब वह पूछता है, आगे क्या लिखते हो!

टिप्पणियाँ

  1. इस फ़िल्म ने जाति, धर्म, लिंग के हर उस पहलू को बखूबी छुआ जो सो कॉल्ड भद्र समाज को असहज कर सकता है।

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