Navodaya: Its an emotion rather than a school
नवोदय.... अल्फ़ाज़ नहीं है बयां करने को , बारहवीं नहीं ज़िन्दगी को कैसे पास करना है ये सिखाया है तुमने!
मुझे याद है अक्टूबर कि वो 5 तारीख़ सन 2000, जब नवोदय में दाख़िला हुआ, बेलबॉटम(जो उस दौर का फैशन था ) पहना हुआ एक लड़का अपने से एक साइज बड़े गोल्डस्टार के जूतो और काली बनियान पहने हुए जब उस गेट, जिस गेट पर लिखा था - प्रज्ञानं ब्रह्म यानि जो प्रकट है वही ब्रह्म हैं, अंदर जाता है तो तो उस समय तो नहीं कहा था पर आज की समझ से कह सकता हूँ -‘गर फिरदौस बर रुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त’ अर्थात अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं पर है और सिर्फ यहीं पर है
पहली दफा गढ़वाल में इतना दूरस्त जाना हुआ था। कर्णप्रयाग से आगे जब बस की खिड़की से नीचे बहती अलकनंदा को देखने की हिम्मत नहीं हुई थी तो पापा से कहा था," यार इस ओर आप बैठ जाओ " पिता से हमेशा एक दोस्ताना रिश्ता रहा इसलिए न कभी 'यार' कहने में मैंने गुरेज़ किया न उन्हें सुनने में परहेज़ हुआ! रुद्रप्रयाग से 42 किलोमीटर दूर गुप्तकाशी और वहां से 7 किलोमीटर जाखधार , जहाँ थी अपनी जन्नत, जिस जन्नत ने आज भी अपना 'पता' नहीं बदला हैं।
मनीष ने जाते ही कायदा सिखा दिया था कि ," सीनियर्स से भाईसाहब करके बोलना वरना मार भी पड़ सकती है" वो तब का उसका ध्येय वाक्य आज भी मेरे ज़हन में बदस्तूर जारी है। तब डर से कहते थे आज उनके लिए दिल में इज़्ज़त हैं। लेकिन जिस इंसान से दिल का रिश्ता बना जो आज भी उतने ही माकूल है वो हैं - सदर सिंह कैंतुरा सर , अंग्रेजी के सर ,उस समय हमारे वार्डन...राजीव हाउस के वार्डन ! लेकिन एक वार्डन से कहीं ज्यादा ,शायद एक पिता से भी ज्यादा थे सबके लिए। ... आज भी हैं। अगर आज मेरी अंग्रेजी पर थोड़ा भी पकड़ है तो वो उनसे है।
नवोदय में जाते ही जो चीज सबसे इर्रिटेट करती है वो है सुबह की पीटी! शर्तिया तौर पर कह सकता हूँ तब तो वो किसी को पसन्द नहीं होगी ... पर आज सभी उसे मिस करते होंगे! हैं न? ललित चंद्र तिवारी सर जिनके दस्तखत मैं ताउम्र नहीं भूल पाऊंगा। ... दुनिया में जिस जानवर की पूँछ सबसे लम्बी होगी उस से ज्यादा उनके दस्तखत का वो 'आर' या 'आई' था! पर अपने विषय के प्रति जज्बा कमाल का था उनका ... सातों दिन ट्रैकसूट !
ख़ैर हॉस्टल की ज़िन्दगी पर आया जाए...छटवीं और सातवीँ में तो डबल डेकर बिस्तर थे पर आठवीं में जाते ही वो सीमेंट के बने बेड , एक कमरे में 24 और बिल्डिंग में 48 बिस्तर। जो नवोदय से नहीं है उन्हें यह सुनने में अजीब लगेगा पर जो नवोदय से होंगे वो सोचेंगे 100 भी होते तो कौनसा क़यामत आ जाती? मज़ा ही आता। शुरुआत में नागराज, ध्रुव ,डोगा जैसे अपने हीरो की कॉमिक्स पढ़ना वो भी... 6 -7 लोगो का एक साथ जिसमे मेहरा और मेरे जैसे उसेन बोल्ट थे तो शंकर वो खरगोश और कछुए की दौड़ वाला 'कछुवा'... ख़ीज़ होती होगी खैर कई दफा उसने शिकायत दर्ज़ की और हमने भी सरकारी बाबुओ की तरह उसे अनसुना कर दिया। धीरे धीरे इसी शगल ने मुझे प्रेमचंद और टॉलस्टॉय तक पहुंचाया और ये इल्म आज तक भी कायम है।
और हाँ संगीत का जो शौक रहा उसमे भी नवोदय ने हमारे इनसाइक्लोपीडिया को आगे ही बढ़ाया। वो दौर वॉकमेन का होता था जब 50 रूपये की कैसेट लेकर या डबिंग करवाकर घर से लाना और वॉकमेन के सेल ख़त्म होने पर औरो की अलार्म घड़ियों से उसकी भरपाई करना। लेकिन उससे फायदेमंद था वो 10 बैंड वाला ट्रांसिस्टर - FM हो या क्रिकेट कमेंटरी , बॉलीवुड का टॉप 10 हो या देर रात... " हेलो मैं आपका लवगुरु" सबके लिए बजट फ्रेंडली और पकड़ा भी जाय तो कोई खासा नुक्सान नहीं... घर जाने दिन वापस मिल ही जायेगा !
नवोदय में जाते ही आपको जिसकी हिफाज़त सोने या हीरे से भी ज्यादा करनी होती है वो है - चम्मच और गिलास (थाली के गायब होने के चांस लगभग शून्य है ... जब तक वो किसी के ऑमलेट के लिए तवे का काम न कर जाए !) चम्मच का तो वाक़्या ये होता है कि हाथ से खाने पर मार भले पड़ जाए पर भाई हम अम्बानी की औलाद नहीं हैं कि हर दूसरे दिन नयी चम्मच खरीद लें ! मेस के खाने को लेकर तब कितनी शिकायत होती थी, पर संडे को वो 2 पराठे यार स्वाद ही अलग था... डबल मारने का मूड तो काफी होता था पर 'साहब सिंह सर' की वो नज़र काफी होती थी अपने पैर 180 डिग्री मोड़ने के लिए। उपाध्याय सर के आने के बाद जो चीजें बढ़ी उसके लिए हम सब शुक्रगुज़ार होंगे ये मेरा निजी तौर पर मानना है। और जिस दिन खाना न पसंद आये उस दिन वहां से शरलॉक होम्स बनकर रोटियां हिफाज़त से हॉस्टल तक पहुँचाना भी क्या हर कोई कर सकता था? उसके लिए हर हॉस्टल में कुछ ख़ास खिलाड़ी तैयार किये गए होते थे ,जिनके हुनर के कारण हर हॉस्टल की वो अपनी मिल्कियत होते थे !
इतवार का दिन रहम का दिन होता था क्योंकि उस दिन सुबह पीटी नहीं होती थी पर जो उससे भी तकलीफदेह होता था वो था, शनिवार की रात आपके सीनियर का आदेश ," सुबह चाय ले आना "... अब साहब आप अपनी चाय लाये न लाये पर 'भाईसाहब ' के लिए चाय लाना आपके लिए सांस लेने से भी ज्यादा ज़रूरी है क्योंकि आप ऑक्सीजन के बिना कुछ हद तक जी लें पर उनसे न बच पाएंगे ! लेकिन इसके इलावा सब 'चंगा सी' होता था क्योंकि कपडे सब लोग शनिवार की रात धो लेते थे और फिर इतवार का काम क्या? या तो जैकी चैन की फिल्मे या फिर दिन भर क्रिकेट! और दिन का वो कढ़ी चावल... उससे बढ़िया कढ़ी चावल किसी ने कहीं खाये हो तो बता दे, ईनाम का हक़दार होगा वो मेरी और से तो।
नवोदय कहने को तो 'को -एड' हैं पर सही मायनो में हैं नहीं क्योंकि क्लास में उनसे उतनी दूरी का वो गलियारा जो LoC से भी ज्यादा चौड़ा होगा और बात करना तो मियां भूल ही जाओ! ख़ास बात उस गलियारे की दूरी न तब किसी से पाटी गयी और वो सिलसिला आज भी कायम है... हाँ किसी की अपनी कहानी ने कहीं परवाज़ पकड़ी हो तो वो उसका अपना हुनर होगा ! भाई हम तो उस फेहरिस्त में कहाँ पर ठहरे ये मृत्यु के बाद होता क्या है उससे भी ज्यादा शोचनीय विषय रहेगा !
शुरुआत में नवोदय जाते ही सब ये सोचते थे कि , वेकेशन कब होगा... पर दिन बीतते बीतते सब इतने ढल जाते हैं उस माहौल में कि वेकेशन में भी सोचते है कि कब छुट्टी ख़तम हो और वापस नवोदय जाया जाए ! बहुतों के लिए ये अतिश्योक्ति हो सकता है पर जिसने वो ज़िन्दगी जी हैं वो जानता है ये सोलह आने सच है!
होते होते कब 7 साल गुजार दिए वहां पता नहीं चला किसी को , जगजीत का वो गीत - एक लम्हे में सिमट आया है सदियों का सफर..ज़िन्दगी तेज़,बहुत तेज़ चली हो जैसे , जैसे कुछ अशआरों में उन 7 सालों को अच्छे से बयां कर देती है। ... खैर पता तो ज़िन्दगी का भी नहीं चलता साहब! कब लगभग आधी उम्र बिता दी आपने ... बहरहाल इतना पढ़कर बहुतों को रश्क़ होगा कि उन्होंने ये ज़िन्दगी क्यों नहीं जी! और मेरे जैसे लोग शायद अपनी उस ज़िन्दगी को याद करें और कब उनकी पलकें गीली हो गयी होंगी उन्हें इसका अंदाज़ भी न हुआ होगा।
नवोदय , जिस पर उपन्यास लिखें कोई तो उसे वो भी अधूरा लगेगा , आज जब प्रदीप से बात हुई थोड़ा तो सोचा लिखूं इस बारे में। मेरे जैसा इंसान जो शायद बचपन से इतना मजबूत रहा कि, आँखों में आंसू आना जिसके लिए सूरज पश्चिम से उगना जैसा था.... नवोदय में केवल एक बार रोया था- नवोदय छोड़ते समय ! आज भी उस पल को सोचता हूँ थोड़ा भावुक सा हो जाता हूँ। आखिरी दिन वो नवोदय से लिया हुआ बिस्तर लौटाना... कोई जान मांग ले तो इससे तो कम ही दर्द होगा ! उसके बाद हर एक टीचर और मेस वाले भाईसाहब लोगो से कहना कि ," चलते है भाईसाहब " इससे ज्यादा बुरा अलविदा कहना मुझे तो किसी को नहीं लगा आज तक। आंसू दोनों ओर होते है कुछ दिखाते हैं कुछ छिपा लेते हैं।
आदमी के ज़हन में हमेशा किसी जगह को लेकर कुछ खट्टी और कुछ मीठी यादें होती है। पर नवोदय वो जगह है जहाँ की आपके पास बस एक मिठास है...खटास कुछ भी नहीं। सोचा था टीचर बनूँगा तो नवोदय का ही पर गोया किस्मत को यह मंजूर न था... कोशिश की थी सफल नहीं हुआ। आज भी प्रथम वर्ष में जब कॉलेज में कोई एडमिशन लेता है और अगर उसकी जुबाँ से ये हर्फ़ निकले ," सर नवोदय से हूँ " किस नवोदय से हो देश के इससे कतई फर्क नहीं पड़ता बस वो नवोदय सुनाई देता है कान में ! बस इतना काफी होता है उन यादों में खो जाने के लिए...और मन में एक ठसक कि ,तुम अबके हो बेटा ज़िन्दगी तो हमने जी थी यार नवोदय में !
आखिरकार नवोदय तो नवोदय है उसे शब्दों में बयां करना नामुमकिन सा है पर इतना कहूंगा कि... ग़र इक बार फिर से मौका मिले तो मेरी पहली और आख़िरी पसंद बस तुम हो! क्योंकि एक स्कूल से बढ़कर तुम एक जज़्बात हो।
रक़्स तो मुझे भी हो रहा है, कि मैंने ये जिंदगी क्यों नहीं जी।
जवाब देंहटाएंशब्द तेरे है भाई पर अहसास हर नवोदयन का है।
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद फिर से उसी माहौल का एहसाह करवा दिया भाई।
जवाब देंहटाएंबहुत ही खुब सर
जवाब देंहटाएं👌👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंSir Nice 🙏🏻❤❤
जवाब देंहटाएंबहुत खूब दीपक जलते रहो अपनी लौ को कम मत होने दो।
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार। शब्दों का भावनाओं के साथ इतना सटीक मेल कराना इतना आसान तो बिलकुल नहीं जितना दीपक सर ने बना दिया इसे पढ़ने से पहले मुझे लगता था कि engineering life मैं ही सबसे अधिक आनंदित क्षण होते होंगे पर अब मेरी राय कुछ और है।
जवाब देंहटाएंशानदार भाईसाब
जवाब देंहटाएंशानदार, बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंये एहसास हो रहा हैं अलविदा के समय तुम्हारे आंसूओं का दर्द तुम्हारे मन का नमक हीं जान सकता हैं।
आहा!!! बहुत सुंदर....सुनहरी यादों को आपकी लेखन कला ने और भी बेहतर बना दिया है....इसे पढ़कर कुछ पलों के लिए मैं भी अपने Dsb campus और हॉस्टल की यादों को समेटने लगी थी.....बहुत अच्छा और सुकून भरा लगा लेख....लिखते रहिएगा
जवाब देंहटाएंWhat I am today, all my writings...credit goes to Navodaya. Thank you so much all
जवाब देंहटाएंSunday ke 2 parathe ka taste hi alag tha bhai (double marne ka kabhi sahas nhi hua uska master yashpal or mehra the)
जवाब देंहटाएंवाह सर मजा आगया आपके नवोदय के स्वर्णिम दिनों की दास्तां पढ़ कर I
जवाब देंहटाएंमन तो मेरा भी बहुत था हॉस्टल की दुनियाँ को जीने का पर वो अनुभव कभी मिला नहींI
सर!मुझे मेरे स्कूल की यादें भी ताज़ी हो गई आपके संस्मरण से... पढ़ते पढ़ते कब मैं अपने स्कूल के प्रांगण में चली गई पता नहीं लगा🌿🙏
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