बागेश्वर जिले (कुमाऊँ) से लगते चमोली जिले(गढ़वाल) का पहला क़स्बा- ग्वालदम।
चमोली जिला मुख्यालय से इसकी दूरी 126 Kms है जबकि अगर बागेश्वर से देखें तो ये दूरी केवल 40 Kms है इसलिए इस क़स्बे के लिए बाज़ार बागेश्वर या गरुड़ ज़्यादा मुफ़ीद है।
1960 Mts की ऊँचाई पर स्थित ये क़स्बा जून के महीने में भी, आपको दिसंबर की ठंड के दर्शन करवा सकता है। सामने त्रिशूल (7120Mts) और नंदा घूँटी(6309 Mts) पर्वत की सफ़ेद चोटिया सामने दिख जायेंगी, अगर क़िस्मत में साफ़ मौसम हो तो!
ख़ूबसूरती से लबरेज़ ये छोटा सा क़स्बा बड़े छोटे से हिस्से में देवदार के जंगल, प्राकृतिक तालाब और गढ़वाली-कुमाउनीं संस्कृति से महदूद है, जिसमें क़स्बे से 1 Kms आगे जाकर आपको मार्छा या भोटिया जनजाति की झलक भी मिल जाएगी।शायद ही ऐसा कोई साल हो जब यहाँ बर्फ़ अपनी दस्तक ना दे!
यहाँ सबसे खूबसूरत जगह जो आपको लगेगी वो है, ग्वालदम के नये बाज़ार में मौजूद, प्राकृतिक तालाब जिसका हरा पानी और उसमे तैरती लाल मछलियाँ आपको ज़रूर सम्मोहित करेंगी।
मैंती आंदोलन, जो कि राजकीय इंटर कॉलेज ग्वालदम के एक शिक्षक श्री कल्याण सिंह रावत जी के द्वारा शुरू किया गया था, कि शुरुआत इसी क़स्बे से हुई। यह पर्यावरण बचाव में एक अद्भुत पहल थी, जिसमें विवाह पश्चात एक लड़की अपने मायके(मैत) में एक पौधा रोपती थी और जब भी आती तो देखभाल करती, इससे एक तो उसकी याद जुड़ी रहती है और पर्यावरण में योगदान तो है ही! यानी विन विन सिचुएशन!
तालाब के बग़ल में ही पुराना डाक बँगला है जिसको सन् 1890 में निर्मित किया गया।उस दौर में ये सभी बंगले सरकारी मुलाजिमों ख़ासकर अफ़सरों की सहूलियत के हिसाब से बनाये जाते थे।आज ये बंगला वन विभाग के दख़ल में है,जिसके बारे में वहाँ लोगो ने बताया कि काफ़ी नॉमिनल दर पर रुका जा सकता है।यहाँ से सामने के पहाड़ बड़े ख़ूबसूरत दिखाई देते है।
ग्वालदम से लगभग 4 kms आगे जाकर बधानगढ़ी (2260 Mts) के लिए रास्ता जाता है,जो कि एक मंदिर है जिसका निर्माण 8वीं से 12वीं शताब्दी में यहाँ कत्यूरी शासकों ने करवाया था।काफ़ी वृहद् क्षेत्र से लोग यहाँ दर्शन के लिए आते है। खूबसूरत जगह है यहाँ से चारों ओर नज़ारे देखने लायक़ है।
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क़स्बे से ही 2 Kms आगे कृषि विज्ञान केंद्र है जहां आपको मौसम में आडू, पुलम आदि के पेड़ बहुतायत में मिलेंगे, जून में सेब और वैसे ही सर्दियों में माल्टा! ख़रगोश पालन और भेड़ पालन भी दिख जाता है। और इसी के नज़दीक आपको भोटिया (चमोली में मार्छा) जनजाति की बसायत भी मिल जाएगी, जो अपने रंगीन ध्वजों से अलग से पहचानी जाती है।एक समय था जब आपको सरे बाज़ार, ख़ूब सारे भोटिया जनजाति के लोग ऊन कातते मिल जाते थे, पर इतने सालों बाद कोई नही दिखा। बचपन में एक दफ़ा किसी के साथ जाने का मौक़ा मिला था और छंग (घरेलू शराब) को मट्ठा समझ मैंने दो घूँठ मार लिए थे!
बचपन में SSB का इलाक़ा हम बच्चों के लिए किसी संभ्रांत जगह से कम नहीं हुआ करती थी..ख़ासकर वहाँ लगे वो फूलों के बाग़। पर अब वहाँ घुसने की भी मनाही है। नये रंगरूट यहाँ तराशे जाते है जो अपने कटोरा कट हेयरस्टाइल में आपको यकबयक़ नये बाज़ार या एटीएम के पास दिख जाएँगे।
बीच बाज़ार ग्वालदम में होटल त्रिशूल, जिसके मालिक शाह जी को मैं बचपन से उनके टाइमलैप्स में देख रहा हूँ! न उनका अन्दाज़ बदला ना उनके होटल में टिक्की का स्वाद! होटल में यशोधर मठपाल जी की पेंटिंग्स की (छायाप्रतियाँ शायद) ख़ूब लगी है और चिपको का चेहरा- गौरा देवी जी का भी, जिसे इस होटल में मैं बचपन से देखता आया हूँ।
सामने GMVN का गेस्ट हाउस जहां बचपन में भी बंदर कूदते दिखते थे, आज भी उनके दर्शन आपको अनायास हो जाते है।
ये ऐसा क़स्बा है जहां कुछ नहीं बदला इतने साल में, अपनी प्राथमिक शिक्षा के दौरान जो देखा था, जस का तस है…सौरव पुस्तक भंडार जहां से कितनी चंपक, नंदन और नन्हे सम्राट और कितनी कॉमिक्स ख़रीदी..कभी कभार पैसे न होने पर मिन्नतें कि साहब ये मैगज़ीन मत बेचना…बस दो दिन!
देवदार के पेड़, जिनकी जड़ों पर क़िस्मत से आपको कभी गुच्ची मशरूम मिल ज़ाया करते थे, जिनके बारे में उस वक़्त कहते थे ये 8000 रुपये किलो बिकता है, जब एक अच्छे ख़ासे सरकारी नौकरी वाले की तनख़्वाह भी 1000-1200 से ज़्यादा नहीं रही होगी!
ग्वालदम से ही नंदकेसरी और देवाल, मुंदौली ,वाण आगे के लिए भी रास्ता जाता है जो आगे बेदनी बुग्याल और रूपकुण्ड के लिए जाता है।
बचपन सबसे ख़ुशगवार उम्र होती है, जब आपका काम बस स्कूल जाना-घर आना- स्कूल जाना होता है। न करियर की फ़िक्र ना भविष्य की कोई प्लानिंग। और ऐसे क़स्बों में अगर आपका जीवन बीता है तो क्या ही कहने, आप सही मायनों में प्रकृति की गोद में पले बढ़े है!
❤️
जवाब देंहटाएंशब्दों द्वारा ग्वालदम का सुंदर चित्रण।।
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