परंपरा के नाम पर अंधविश्वासों का समर्थन


 8 जनवरी 2023, को सुल्तानपुर में एक माँ ने अपने बच्चे की बलि दे दी! कारण मनोकामना पूर्ति।

12 अक्तूबर 2022, केरल में दो महिलाओं का सर कलम कर, टुकड़े कर दिये गये! कारण मनोकामना पूर्ति।

1 जुलाई 2018, दिल्ली के बुराड़ी में 11 लोगों के शव एक साथ बरामद हुए, जिसमें एक वृद्धा, महिलायें, पुरुष, एक जवान महिला(कॉर्पोरेट जॉब) और बच्चे सब शामिल थे। कारण मनोकामना पूर्ति!

वर्ष 2002, पाकिस्तान में रिपोर्टर डैनियल पर्ल का सर काट दिया जाता है, आतंकवादियों द्वारा।

क्या पहली तीन घटनायें चौथी घटना से किसी तरह अलग है? 

हाँ, चौथी घटना का उद्दयेश्य केवल अपना शक्ति प्रदर्शन है जबकि पहले तीन का अपनी इच्छा पूर्ति!

विदेशों का पता नहीं, पर अपने देश में तो हर जगह ऐसे हज़ारों अंधविश्वास प्रचलित है, जिनका निवारण केवल 'बलि' है। यह जानवर की सामान्यतः होती है, उस कमजोर जानवर की, जो किसी कारण अक्षम है। बकरे या बैल या भैंस की इसलिए क्योंकि वो ज़्यादा दूर भाग नहीं सकते, आपने किसी भी तथाकथित सभ्यता में शेर, तेंदुए या बाघ की बलि सुनी? नही!

पक्षियों में आपने मुर्ग़े या मुर्गी को इसलिए चुना क्योंकि वह ज़्यादा दूर नही उड़ सकता था। क्यों चील या बाज़ बलि का हिस्सा नहीं रहे!

यहाँ दिवाली के समय कई बार तस्करों द्वारा 'उल्लू' बेचने के दौरान पकड़े जाने  की खबर आती है। कारण मनोकामना पूर्ति के लिए बलि!

धार्मिक कट्टरपंथी, हमेशा अंधविश्वासों को जन्म देती है। हमारा या तुम्हारा कट्टरपंथ कुछ नहीं होता।कट्टरपंथ सिर्फ़ कट्टरपंथ होता है।

मानव समाज में राहुल सांकृत्यायन लिखते है, कैसे आदिम दौर में जब एक क़बीला दूसरे क़बीले से युद्ध जीत जाता था तो बंदी इंसानों को मार के खाया जाता था, ताकि उनके भरण पोषण में खर्च होने वाला अनाज बचाया जा सके।कृषि अपनाने के बाद यह कार्य बंद हुआ क्योंकि अब श्रम के लिये मज़दूरों की ज़रूरत थी ।क्या आज भी हम उन क़बीलाई सभ्यताओं से ख़ुद को अलग कर पायें है? सोचें ज़रूर।

यहाँ अपने राज्य उत्तराखंड में तो देवभूमि का टैग अलग से लगा है, राजनीति इसे अपने फ़ायदे के लिए भुनाती है और अंधविश्वासी लोग इसी का सहारा लेकर, “ कुछ तो होने वाला ही हुआ! ऐसे थोड़े ना हमारे पूर्वजों ने इतना सब किया ठहरा और मानने वाले हुए” जैसे राग अलापते आपको मिल जाएँगे। और अधिकांशतः समस्याओं का निवारण- एक मासूम जानवर की बलि! तो मेरा एक प्रश्न है इनपर यक़ीन करने वाले लोगो से। यदि आप उसे किसी भगवान की इच्छा के कारण उस निरीह जीव की हत्या कर रहे है, तो इसका अर्थ या तो आपका वो भगवान आपसे कमजोर है, तभी आपके हाथों उसकी हत्या करवा रहा है क्योंकि वो भगवान कमजोर है, ख़ुद वो जान ले नहीं सकता।यदि कमजोर है तो वो एक सामान्य मनुष्य से भी गया गुज़रा हुआ।और अगर ऐसा है तो आप उससे बेहतर है और कोई भी कमतर किसी  बेहतर से अच्छा कैसे हो सकता है? मतलब दोनों बातों में एक झूठ है या दोनों झूठ है!

जैसे मैं हिन्दी समझता हूँ, क्योंकि मैं बचपन से इसके साथ जिया हूँ।ऐसे ही मैं इस धर्म में जिसमें मैं पैदा हुआ, उसी की ख़ामिया ज़्यादा जानता हूँ और उजागर करने लायक़ हूँ।हाल में प्रोफ़ेसर श्याम मानव द्वारा एक पाखंडी और ढोंगी बाबा को चुनौती दी गई जिसे बाबा ने अस्वीकार कर अपनी खटिया बांध ली और भाग गया।ये वही बाबा हैं जो आएदिन दूसरो धर्म के लिए लोगो को भड़काते रहते है।इस प्रकरण में तारीफ़ होनी चाहिए शंकराचार्य  अविमुक्तेश्वरानंद जी की, जिन्होंने ना सिर्फ़ उस पाखंड का विरोध किया बल्कि जोशीमठ की दरारों को उसके अपने चमत्कारों से भरने का चैलेंज तक दे डाला!इस प्रकरण में मुझे अफ़सोस था कुछ अपने साथी ऐसे 'शिक्षकों' का जिन्होंने उस ढोंगी बाबा के पक्ष में पोस्ट डालें, अब ऐसे शिक्षक अपने छात्रों के दिमाग़ में कितना कूड़ा भरते होंगे ये सोचकर ऐसे शिक्षकों पर केवल बेशर्मी और घटिया मनोवृत्ति का टैग ही लग सकता है।

हमारे यहाँ कई ऐसी परम्परायें है, जिनका कोई तुक नहीं पर लोगो के अंदर एक डर है।कि उन्हें ना मानने पर क्या होगा! बाक़ी को छोड़ दीजिए, विज्ञान के पीएचडी किए छात्र और शिक्षकों तक के मन में ये डर है, कि इन अंधविश्वासों को ना मानकर उनका कुछ नुक़सान ना हो जाये, जबकि वो जानते है की प्रकृति के मूल बल केवल चार है, इसके अन्यत्र कोई नहीं।ख़ैर मुझे आश्चर्य नहीं होता कि मार्क्स जैसे विद्वान ने धर्म को अफ़ीम क्यों कहा!

ग़ौरतलब है हमने भूत प्रेत जैसा कोई विषय 12वीं तक या कॉलेज में भी नहीं पढ़ा, पर इन बाबाओं और ढोंगी पाखंडियों ने इनका डर लोगो के मन में ना केवल बसाया बल्कि, अब तो न्यूज़ चैनल  पर तक उसका बढ़ाचढ़ाकर प्रमोशन भी किया जा रहा है।क्योंकि इससे उनका धंधा चल रहा है और न्यूज़ चैनल को टीआरपी।

मेरे कई मित्र है जिनसे इस बारे में बात होती है, छात्र-छात्रायें भी है। पर ताज्जुब की बात है मेरे छात्र-छात्रायें, मेरे मित्रों (शिक्षक और शोधार्थी) से ज़्यादा तार्किक सोच रखते है।जबकि मित्रों में दोगलापन ज़्यादा है।वो ख़ुद को दिखाते तो तार्किक है, पर गाहें बगाहे असलियत और विचार ज़ाहिर कर ही देते है।यहाँ तक कि गणित और भौतिकी जैसे विषयों के शोधार्थी भी कम गये गुजरे नही है।

डॉo नरेंद्र दाभोलकर हो या आज प्रोo श्याम मानव इन्होंने भरसक कोशिश की है लोगो में तार्किक सोच बढ़े और अंधविश्वास दूर हो, पर, लोग उन्हें पढ़ना तो छोड़िये उनके नाम तक से वाक़िफ़ नहीं है।

कमाल की बात है, जब कुछ दोस्तों से बात होती है तो वे कहते है, यार कहीं 'तुम्हारी तरह' न बन जाये हम! यानी उन्हें डर है कि वे तार्किक सोचना ना शुरू कर दें।हम जिस माहौल में रहते और बड़े होते है, उस समाज से प्रभावित होते है। पर जब आप पढ़ लिखकर ऊँचाइयों पर पहुँचते है, तब भी आपके दक़ियानूसी अंधविश्वास पीछा नहीं छोड़ पाते! क्योंकि आप सोचना नहीं चाहते। अपने comfort Level को नही छोड़ना चाहते। अपने आडंबरों में सहज महसूस करते है और खुश है।विज्ञान के नियम आपके लिए बस किताब तक ही सीमित हैं।

Mass Hysteria जैसी बातों के बारे में मैं पहले भी बात करता आया हूँ।बाक़ी कारणों के बारे में भी, पर स्कूलों और कॉलेज में इस बारे में कोई शिक्षक बात करते और छात्र-छात्राओं की काउंसलिंग करते मैंने नहीं देखे, मनोविज्ञान के शिक्षकों तक को भी नहीं।क्योंकि उनकी नज़रों में ख़ुद ये एक मानसिक विकार नहीं है, तो आप उनसे उम्मीद कर भी क्या सकते है! जब शिक्षक ही अंधविश्वासी होंगे तो बच्चे कैसे तार्किक बनें?

सोशल मीडिया का ऐल्गोरिथम ऐसा है, जैसा आप ढूँढोगे बिल्कुल वैसा ही आपको बारंबार परोसा जाएगा…नतीजा, आपके मस्तिष्क में अंधविश्वासों का ढेर! 

इसलिए अज्ञानी (नही पढ़े) लोगो से तो ख़ैर उम्मीद की भी नहीं जा सकती है पर युवाओं और शिक्षकों से ख़ासकर मैं ये कहना चाहता हूँ,कम से कम आपसे तो तार्किकता की उम्मीद की जाती है। अगर आप ही इन अंधविश्वासों में उलझे है तो आने वाली जनरेशंस को कैसे तार्किक बना पायेंगे? परंपरा के नाम पर केवल अपने सर पर कचरे का ढेर मत लादिये, जीवन में जिन किताबों में सर खपाया है, उस पर कभी विचार भी करें।

टिप्पणियाँ

  1. आपका बहुत बहुत शुक्रिया इन मुद्दो पर बोलने के लिये 👍

    जवाब देंहटाएं
  2. Sir aapke student aapse prabhaavit hokar... Tarkik soch jarur rakhenge ✌🤘

    जवाब देंहटाएं
  3. Nayi peedhi or ham milke isko rok sakte hain par aajkal ke kai nojawan khud maansahar or tamshik bhojan se lipt hain. Unko v moka mil jata hai isliye rukta nahin. Jab ham kisi market main slaughter house ke samne se nikalte hain to muh pher lete hain. Party ke naam par, mehman nawaji main v aajkal inhi ka bolbala hai. Isko rok pana kathin hai par asambhav nahin. Aasha karta hun Sayad aapke is lekh se bahut log jaag jayenge

    जवाब देंहटाएं
  4. This blog/article can definitely bring the power of logical thinking in some people,and a lot of misconceptions will be less.
    Our teachers never do this kind of work
    you are doing a great job,In future many people will be thankful for this.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

छिपलाकेदार: कुमाऊँ का सबसे दुर्गम और ख़ूबसूरत ट्रैक

अध्यापक के नाम पत्र: बारबियाना स्कूल के छात्र

Higgs Boson: God Particle?