कंच्योती तक के सफ़र को मेरे पुराने ब्लॉग- Closest to Himalaya: Panchachuli trek, में पढ़ा जा सकता है, उससे आगे का सफ़र, तफ़सील से यहाँ लिख रहा हूँ…इसकी भी गुज़ारिश कुछ मित्रों की थी,इसलिए…
मेरी अकेली यात्रा में मिले दो बेहतरीन नौजवान…हिमांशु और सैंडी, जिनका मन लगभग वापसी का था अपनी अपनी मंज़िलों की तरफ़।और मैं अपने अधूरे सफ़र को पूरा करना चाहता था, नारायण आश्रम के लिए। तो पंचाचूली बेस फ़तह करने के बाद दुग्तू पहुँचकर, रात की सूखी रोटियाँ और हरी मिर्च के क़हर में तपी हुई मैगी हलक से नीचे उतारकर, हमारी मोटरसाइकिल तैयार थी वापसी के लिए। साथ में होमस्टे वाले प्रकाश भाई को भी साथ आना था वापस धारचूला की ओर। मोटरसाइकिल 3 और लोग 4 थे। हिमांशु भाई का बैग अपनी बाइक पर बांधकर, हिमांशु भाई की बाइक पर हो लिए प्रकाश भाई भी। क्योंकि हिमांशु भाई की बाइक 300cc की थी। होने को ये रास्ते बाइक में doubling के लिए बिल्कुल मुफ़ीद नहीं लगते मुझे।थोड़ा बहुत डर था कि, सूरज निकले क्योंकि 4 घंटे हो चुके थे तो कहीं नांगलिंग का कटा हुआ glacier सड़क पर आ ना गया हो, अगर ऐसा होता तो फिर फँसना तय था।
ख़ैर, हम निकले और धूप तेज़ थी।इसलिए सफ़र अच्छा रहा और ये मनोवैज्ञानिक भी है कि वापसी का रास्ता आपको हमेशा कम महसूस होता है।वर्ष 2014 का नोबेल मानव विज्ञान में इसी खोज के लिए था भी, कि कैसे मानव दिमाग़ के जीपीएस की तरह काम करता है।बहरहाल सेला में हम रुके, और चाय पी।अब मौसम ख़राब होने का अंदाज़ा होने लगा था। इसलिए हम थोड़ा तेज़ निकले… कंच्योती पहुँचने तक आसमान बरसने लगा था, और साथ तेज़ हवा भी।यहाँ से अब हमें अलग होना था। मेरी मंज़िल नारायण आश्रम थी और बाक़ी दोनों की मुवानी और बेरिनाग। लंच करने के बाद अलविदा कहने को ही थे, कि सैंडी का अचानक प्लान बना कि वो भी चलेंगे, हिमांशु भी तैयार हो गये।मैं इन दोनों मुझसे छोटे उम्र के नौजवानों से बहुत कुछ सीखा…कि ज़िंदगी सही मायने में कितनी ख़ूबसूरत है और लोग कितनी बोझिल बनाये हुए हैं।शायद इरफ़ान ने कहीं कहा था कि, ज़िंदगी छोटी नहीं होती…लोग देर से जीना शुरू करते हैं।
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पूर्वी धौलिगंगा |
जैसा कि पिछले ब्लॉग में कहा था, नारायण आश्रम के लिए हमेशा कंच्योती का रास्ता चुने, क्योंकि वो पुराना है, ज़्यादा सही और और हार्ड रॉक पर बना है।ये लगभग 26 Kms का है, बहुत ज़्यादा संकरा है, अगर आप बहुत एक्सपर्ट ड्राइवर नहीं है तो चौपहिया ले जाने जी जुर्रत भूलकर भी ना करें। निजी तौर पर, I always prefer two wheeler over four wheelers over this road. नीचे की तस्वीर को देख आप अंदाज़ा लगा सकते है, मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ।
कंच्योती से वैली ब्रिज पार करके सबसे पहले थानीधार है, जहां से सीधे डाउनहिल रास्ता तवाघाट भी मिलेगा। अब दुकाने आपको इक्का दुक्का ही मिलेंगी। इसके बाद पांगू, जहां इंटरकॉलेज है और अच्छी जगह है।ये गाँव मुझे काफ़ी डेवलप्ड लगा, यहाँ के घर और बाक़ी संसाधन देखकर…लड़के पूल खेलते हुए भी दिखे, इससे शायद आपको ज़्यादा अच्छे से तस्दीक़ हो जाये।
इसके बाद एक छोटे नाले को पार करने के बाद हम पहुँचते है सोसा… इसी के थोड़ा आगे से एक बाँये रास्ता जाता है, जहां से आप सिरखा और माक़म कैलाश जा सकते है।कच्ची सड़क बनी है किसी बुजुर्ग ने ये बताया था।और अख़िरकार देवदार, बुरांश, उतीस के जंगलों से होते हुए अख़िरकार…नारायण आश्रम।
नारायण आश्रम से पहले सड़क से नीचे आपको KMVN का guest house मिल जाएगा और थोड़ा लगभग आधा किमीo ऊपर जाकर पीडब्ल्यूडी का गेस्ट हाउस। दोनों जगह रहा जा सकता है। आप चाहे तो आश्रम में भी रह सकते है पर कुछ नियम और शर्तों के साथ।अगर पीडब्ल्यूडी गेस्ट हाउस में रहेंगे तो खाने का इंतज़ाम नीचे एक होटल में करना पड़ेगा।अगर आश्रम में जगह मिल गई तो ख़ाना आपको वहीं मिल जाएगा। केयरटेकर दंपत्ति का व्यवहार अच्छा है, अपनेपन का एहसास कराता है।हमने रहने के लिए इस बार पीडब्ल्यूडी गेस्ट हाउस चुना था, क्योंकि हमें लगा कि, म्यूजिक बजाने जैसी अनुमति ना आश्रम में मिल पाएगी ना ये सही होगा।तो अपनी मोटरसाइकिल ठिकाने लगाने और पीडब्ल्यूडी गेस्ट हाउस में कमरे में सामान रखने के बाद हमने रुख़ किया आश्रम का। समय लगभग अंधेरा सा होने को था। थोड़ा घूमने के बाद वापसी में नीचे होटल में डिनर किया, जिसे दो बच्चों ने बनाया था…वे दोनों बच्चे जयकोट इंटर कॉलेज में सातवीं और नवीं म पढ़ते है और शाम को होटल भी चलाते है, इसमें कोई ख़ासी बुराई मुझे नज़र नहीं आती और ये संविधान के अनुच्छेद 24 का उल्लंघन भी नहीं करता।
थकान के कारण हम जल्दी सो गए थे, फ़ोन चार्ज करने की केबल सैंडी भाई से मिल चुकी थी अब ( दारमा में ना मैंने उससे पूछा इसलिए ना उसने बताया) फ़ोन चार्ज किया पर फ्लाइट मोड पर ही रखा, क्योंकि जिस सुकून के लिए यहाँ आया था, उसमे ख़लल मैं नहीं चाहता था। नींद भी जल्दी आ गई। सुबह मैं तक़रीबन 6 बजे उठा। बाक़ी दोनों अपने कमरे में सो रहे थे।मैंने ऊपर की ओर घूमने की सोची।अलसुबह कमरे से बाहर का नज़ारा देखने लायक़ था।
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पीडब्ल्यूडी गेस्ट हाउस |
सामने नेपाल की पहाड़ियाँ थी।जो ऊपर तस्वीर में दिख रही है।मैं थोड़ा ऊपर टहलने गया।गेस्ट हाउस के दोनों गार्ड बाहर घूम रहे थे।ऊपर नेताओं के लिए हेलीपैड बना हुआ है, और एक निर्माणाधीन मंच भी।विकास की उनकी दलीलों को भोले भाले ग्रामीणों तक के ज़हन में उतारने के लिए बन रहा एक मंच…जिसमे, हेलीकॉप्टर से उतरने वाले नेता, आपको विकास के सपने दिखायेंगे और आप, आज भी एक मरीज़ या किसी गर्भवती माँ या बहन को डोली के सहारे, कई किलोमीटर दूर इलाज के लिए ले जाएँगे, जहां डॉक्टर नहीं होगा और फिर हल्द्वानी या दिल्ली रेफ़र किए जाएँगे। ये सिलसिला जारी रहा है और जारी रहेगा। ख़ुद को 'पहाड़' का प्रचारित करने वाले नेता और सिविल सर्विस में 'देश सेवा के लिए आना है' कहने वाले सरकारी मुलाज़िम आपके लिए राजधानी में बैठकर, काग़ज़ो पर नीतियाँ बनायेंगे।
बहरहाल, इस हैलीपैड से एक ओर नेपाल की पहाड़ियाँ तो सामने की ओर, छिपलाकेदार की पहाड़ियों पर ताज़ा बर्फ़ दिख रही थी।आसमान में बादल, उमड़ने लगे थे। कुछ रिकॉर्ड किया ताकि बाद में, कलमबद्ध किया जा सके।फिर नीचे जाकर दोनों वृद्ध गार्ड्स से व्यास घाटी के बारे में कुछ जानकारी माँगी…उन्होंने बताया कि, तवाघाट से आगे, काली नदी के साथ साथ हम मांगती, पांगला, मालपा गर्बाधार होते हुए….छियालेख, बूँदी से होते हुए गुंजी तक जा सकते है।ये कैलाश मानसरोवर वाला रास्ता है, जिसमें लिपुलेख दर्रा होते हुए जाया जाता है।इस सफ़र का बेसब्री से इंतज़ार है, पता नहीं कब मयस्सर हो पाता है।
चाय पीने के बाद, अपना सामान बांधने के बाद अब समय था, नारायण आश्रम जाने का।
नारायण स्वामी, जिन्होंने ये आश्रम बनाया, उन्हें मैं एक सच्चा संत मानता हूँ।कारण कि उन्होंने शिक्षा का प्रसार किया क्योंकि वो ख़ुद एक इंजीनियर थे जो विलायत से पढ़कर आए थे और शिक्षा का महत्व समझते थे। इसलिए उन्होंने ही अस्कोट के पास इंटर कॉलेज खोला, जो जगह आज नारायणनगर कहलाती है।यहाँ भी एक आश्रम है। पर चौदास घाटी वाला आश्रम जिसकी तस्वीर ऊपर है, ज़्यादा सुंदर भी है। और एकांत जगह भी। नारायण आश्रम की देखरेख गुजरात का एक ट्रस्ट करता है। और हर साल आस पास के इलाको में स्वास्थ्य शिविर और मदद आदि बाँटी जाती है।नारायण स्वामी जो विष्णु के भक्त थे, पर इनके लिए ज्ञान और ज्ञान का प्रसार ज़्यादा मायने रखता था। इसी का नतीजा है कि, जानने वाले उनके शिक्षा में योगदान को ज़्यादा तरजीह देते है, मैं भी।
मेरे लिए भी धर्म, चाहे वो कोई भी हो इंसान को अंधेरे में रखने का एक सुविचारित माध्यम है, इसलिए मैं धार्मिक जगहों में जाना पसंद नहीं करता।पर उन जगहों की ख़ूबसूरती देखने में कोई हर्ज मुझे नहीं है। और नारायण आश्रम जैसी जगह में ऐसी धार्मिक रूढ़िवादिता या कर्मकांड आपको नहीं दिखते। क्योंकि हिमांशु भाई, आरती भी शूट करना चाहते थे, इसलिए हम तीनों आश्रम के मंदिर में गये।पुजारी, अपनी आराधना में मशगूल थे, और उनका गला वाक़ई कमाल का था। बात करने में मुझे बहुत भले इंसान मालूम पड़े।
बाहर क्यारी में उगा ये फूल, बिल्कुल बुरांश जैसा लगता है, शायद इसीलिए आश्रम में लोगों ने नारायण स्वामी के नाम पर इस फूल का नाम, नारायण बुरांश रखा है।
आज्ञा मिलने के बाद, सैंडी भाई ने अपने ड्रोन से कुछ एरियल शॉट लिए, कुछ पीडब्ल्यूडी गेस्ट हाउस के भी लिए थे…जिसे देखकर दोनों वृद्ध गार्ड्स विस्मृत थे, जितनी उनकी आँखें मैं, पढ़ पाया था।
आश्रम में दो कुत्ते भी थे, जिनका इस तकनीक से शायद अभी ज़्यादा राब्ता नहीं था, इसलिए उड़ता ड्रोन उन्हें शायद कोई पक्षी लग रहा था। पर वो कुत्ता सच में बड़ा प्यारा था। जिनकी तस्वीर मैंने बेतहाशा उतारी।
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pc:हिमांशु भाई |
अब वापसी के लिए हम तैयार थे।सामान बाइक पर बंधा था।तीन दिन की छुट्टी का बढ़िया निर्वाह हो चुका था। वापसी में उसी संकरी सड़क पर हम तीनों की दोपहिया सरपट दौड़ रही थी।वापसी में एक ड्रोन शॉट , कन्योती ब्रिज के ऊपर का लेकर हम सीधे बलुवाकोट रुके। ब्रेकफास्ट करने के बाद, हिमांशु भाई को ओगला की प्रसिद्ध नमकीन दिलाई( जो उनके मित्र की फ़रमाइश पर ले जानी थी) सैंडी भाई काफ़ी पीछे थे।डीडीहाट आने पर कैमरे की तस्वीरें बाँटने पर विदा लेने का वक़्त आ गया था।
कई बार, मोड़ो पर मिलने वाली गाड़ियों की तरह… जीवन में लोग मिलते है, जिनसे आपका एकाएक तआरुफ़ हो जाता है, और ये तआरुफ़ अच्छी दोस्ती में बदल जाता है। हिमांशु और सैंडी से भी मेरा अब यही साथ है। सैंडी का असल नाम मुझे आज भी पता नहीं, और ना इसकी ज़रूरत है। इंसान नाम से नहीं अपने ख़यालों से इंसान है।व्यास घाटी के अगले प्लान के प्रॉमिस के साथ हम तीन अलग हुए, देखते है… वो कब बन पाता है।🔜
आख़िर में कम से कम मेरे जैसे बाक़ी लोगों के लिए भी, निदा फ़ाज़ली साहब की ये नज़्म-
"धूप में निकलो, घटाओ में नहाकर देखो
ज़िंदगी क्या है, किताबों को हटाकर देखो"
बहुत सुंदर यात्रा वृतांत.
जवाब देंहटाएंभौत अद्भुत अनुभव
जवाब देंहटाएंBhut sudar ❤️❤️
जवाब देंहटाएंNice 👍👍
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