Still Your caste matters above everything

 


आपकी पहचान आज भी आपकी जाति से है ना कि, आपके कर्मों से, पेशे से या आपकी आर्थिक स्थिति से।जब भी सोचता हूँ इस बारे में लिखना छोड़ दूँ, कोई ना कोई वाक़या आस पास ऐसा हो ही जाता है कि रोहित वेमुला के वो शब्द मेरे ज़ेहन में फिर से ज़िंदा हो जाते है-"My birth was my mistake”

मेरे एक करीबी रिश्तेदार का चयन एक बैंक में कुछ समय पहले हुआ, अपने प्रोबेशन पीरियड के बाद जब उसका तबादला बागेश्वर जैसे शहर में हुआ तो स्वाभाविक तौर पर उसने ख़ुद तो कमरे के लिये ढूँढना शुरू किया ही, मेरे परिचित हो सकते है इसलिए मुझसे भी इस काम में मदद करने को कहा।स्वाभाविक तौर पर मैंने अपने मित्रों से कमरा ढूँढने को कहा। नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात! किसी को इस बात से मतलब नहीं है कि वो आदमी एक शिक्षक है,बैंक मैनेजर है या कोई प्रशासनिक अधिकारी।बस जाति से मतलब है या यूँ कहूँ कि बस ‘surname’ से ।अगर surname में थोड़ा doubt हुआ तो सीधे पूछ लेते है-“आप क्या हुए?” और बस आपके वर्षों की मेहनत, आपके जीवन का struggle गया भाड़ में।

एक निचली जाति(जो तुम्हारी वर्णव्यवस्था की देन है) क्या जानवरों से भी गई गुजरी है? आप अपने कुत्ते को अपने बिस्तर पर सुला सकते है, लेकिन वो इंसान एक अच्छे ओहदे पर आने के बाद भी आपके कुत्ते की बराबरी नही कर पाया! धिक्कार है ऐसे धर्म पर और उनपर जिन्हें नाज़ है अपने इस घटिया धर्म पर, जो इंसान को इंसान नहीं समझता। 

आख़िर तुम्हें दिक़्क़त है किस बात से? कि हम पढ़ लिखकर तुम्हारी बराबरी कैसे कर गये या तुमसे आगे निकल रहे हैं? शहरों में 90 प्रतिशत से ज़्यादा घर तुम्हारे, दुकाने तुम्हारी, राजनीति का बड़ा हिस्सा तुम्हारा…हमारा क्या! क्या क़ुसूर है हमारा कि हम पैदा हो गये? और संविधान के कारण पढ़ लिखकर तुम्हारी आँखों से आँखें मिलाकर बात कर रहें है? 

आख़िर ख़ुद को सवर्ण कहने वालों ने क्या केवल आरक्षण को कोसना और उस पर मीम बनाने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार माना हुआ है? कहाँ है वो लिबरल सवर्ण जो बड़े बड़े सेमिनारों में जाति व्यवस्था पर भाषण देते है, पीएचडी के लिए थीसिस लिख रहें है और दलितों की ज़िंदगी पर रिसर्च पेपर लिखकर अपना एपीआई इंडेक्स मजबूत कर रहें है? इस जाति के कच्चे चिट्ठे खोलना क्या बस मेरे जैसों का काम है? तुम्हारा इसमें क्या योगदान है! केवल अपना मौन व्रत रखना? या आँखें मूँद लेना। बस हमारे बाप दादाओं ने ग़लत किया कहना काफ़ी हो गया? क्या सामाजिक बराबरी के लिए आवाज़ उठाना तुम्हारा काम नहीं है! इस दोगलेपन से तथाकथित लिबरल सवर्ण एक बड़े हिस्से को ज़रूर बेवकूफ बना सकते हैं पर मैं तुम्हारी इस असलियत को निचोड़ कर सामने रखूँगा, चाहे आप मुझे इसके लिए गाली दें या क्रिटिसाइज़ करें। ये ग़ुस्सा बस ग़ुस्सा नहीं है, एक दर्द है जिसे आप कभी शायद महसूस ना कर पायें।


टिप्पणियाँ

  1. Bhot sahi likha, they can't take a step other than saying that reservation is wrong. And meanwhile discriminate every now and then on multiple occasions to flaunt their so called caste a big deal.

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  2. Smaj k is trah k bhedbhaav k awaj uthana bhut jaruri h

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