युद्धों की विभीषिका और बचपन

 

"जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है

जंग क्या मसअलों का हल देगी

आग और ख़ून आज बख़्शेगी

भूक और एहतियाज कल देगी"

- साहिर लुधियानवी 


किसी भी जंग में कोई जीते, कोई हारे पर इसमें हारती हमेशा इंसानियत ही है।अख़बार की सुर्खियो में किसी जंग की तस्वीरें देखना और जंग के हालातों में ख़ुद मौजूद होने में बड़ा फ़र्क़ है।जंग के ही ख़ौफ़, इसकी विभीषिका और संवेदना पर बनाई गयी ईरानी-कुर्दिश निर्देशक बहमन  गोबाडी की फ़िल्म है- Turtles can fly!

2003 में अमेरिकी आक्रमण के बाद सद्दाम हुसैन के इराक़ की सत्ता से बेदख़ल होने के बाद बनी यह पहली फ़िल्म थी।

ईरान का सिनेमा विश्वभर में अपने वैचारिक, सामाजिक और बालकेंद्रित फ़िल्मों के लिए मशहूर है।यह सिनेमा अपने नायकों के बरक्स अपने निर्देशकों के लिए जाना जाता है।माज़िद मज़ीदी, असगर फ़रहादी, अब्बास किरियोस्तामी और बहमन गोबाडी इस सिनेमा के बड़े नाम है।

Turtles can fly, का प्लॉट साल 2003 है। Turtles can fly यानि एक असंभव स्थिति।फ़िल्म में यह स्थिति एक लड़की के माज़ी यानी बीते दिनों के मानसिक प्रताड़ना की है।इराक़ के शरणार्थी शिविरों में रह रहे बच्चे जिनकी आजीविका का साधन अमेरिकी लैंडमाइन्स को अपनी जान हथेली पर रखकर उन्हें निकाल कर अपने लिए दो वक़्त की रोटी की गुज़र बसर है।एक लड़का जिसे सारा गाँव 'सेटेलाइट' कहता है,वह इन सब बच्चों का मुखिया है। अधिकतर बच्चों के हाथ-पैर सलामत नहीं है, यह क़ीमत उन लैंडमाइन्स को निकाल कर पेट की भूख को शांत करने की है।

आर्गिन एक 13 साल  की हताश लड़की है जिसने लड़ाई में अपना परिवार खो दिया है।वह अपने भाई के साथ वहाँ एक दुश्मन सिपाही के बच्चे के साथ रहती है जिसे वह स्वीकार नहीं कर पाती।उसका 'armless' भाई उसे समझाने में विफल है कि वह उसे अपनाये।युद्ध ने इन बच्चों का बचपन छीन लिया है।स्कूल से ज़्यादा बन्दूक चलाना-सीखना ज़रूरी हो चला है।अतीत के साये,वर्तमान पर धुंध बने फिरते हैं।खिलौनों की जगह मिसाइल के खोखों ने ली है।

युद्ध फ़िल्मों की कड़ी में यह फ़िल्म आपको उस हक़ीक़त से रूबरू करवाती है कि, युद्धों की विभीषिका में सबसे ज़्यादा मौतें, बालमन की होती है। सबसे ज़्यादा चोटिल इंसानियत होती है और सरहद के दोनों पार आम इंसान इसकी बड़ी क़ीमत चुकाते हैं।यह मानव संवेदना, प्रेम, करुणा जैसे भावों को भी अपने आग़ोश में ले लेती है।युद्ध का हासिल सिवाय हताशा और शून्यता के कुछ नहीं होता।इसमें सबसे अधिक वो प्रभावित होते हैं, जिनका उस युद्ध से कोई वास्ता ही नहीं था।

फ़िल्म की भाषा कुर्दिश है पर अंग्रेज़ी सबटाइटल्स के साथ यह यूट्यूब पर मौजूद है।अगर सिनेमा को केवल मनोरंजन का पर्याय नहीं मानते,और इसे चिंतन के एक रूपक के तौर पर देखते हैं,तो यह फ़िल्म देख सकते हैं। 1 घंटे 37 मिनट की यह फ़िल्म आपको निराश नहीं करेगी।

 

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