खाली होते पहाड़ की कहानी- भूतगाँव
ना ना! यह कोई हॉरर उपन्यास नहीं है।
पहाड़ में ख़त्म होते पहाड़ की कहानी है- भूतगाँव।
दो समानान्तर चलती कहानियों का उपन्यास है यह।वर्तमान और भूत को एक साथ एक धागे में एक के बाद एक मनका पिरोने जैसा अनुभव है यह उपन्यास।
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित नवीन जोशी जी का हालिया उपन्यास है भूतगाँव।
आज से ठीक दो साल जब पहले 'पिथौरागढ़ किताब कौतिक' से पहले लेखक नवीन जी से होटल के उस कमरे में लगभग ढाई घंटा बात की थी, तो उन्होंने बताया था कि 'बाघैन’ को ही एक उपन्यास की शक्ल देना चाह रहे हैं।हालाँकि उनकी कहानी बाघैन मैंने तब नहीं पढ़ी थी अब भी नहीं पढ़ी है।पर उसे इस उपन्यास की शक्ल में पढ़ना एक सुखद अनुभव रहा।
पहाड़ में ख़ाली होते गाँवो और पलायन को बेहद मार्मिक तरीके से कहानी वाचक 'आनन्द सिंह' और उसके कुत्ते 'शेरू' के बीच के संवादों ने धार दे दी है।अस्सी नब्बे के दशक में जन्मे लोग इस कहानी में कई जगह उन किस्सो और बीती बातों से रूबरू होंगे जिन्हें वे शायद भूल ही चुके होंगें।इस आधुनिक दौर के मोबाइल मायाजाल के बीच आपको पहाड़ की सांस्कृतिक धरोहर और लोक संस्कृति के विविध अंश कई बार नमूदार होते दिखेंगे।क्योंकि यह कहानी उत्तराखण्ड के कुमाऊँ के प्लॉट पर आधारित है इसलिए संस्कृति के विविध आयाम स्थानीय शब्दों में ही रचे गए है।हालाँकि उसका हिंदी अनुवाद भी साथ ही लिखा गया है।पहाड़ की पीड़ा और मर्म के लिए शब्दों को उसी बोली में लिखा जाना जरूरी था।
कहानी में पलायन केवल पहाड़ से परदेस का नहीं है, बल्कि देश से विदेश का भी है।लोगो के शहर में बस जाने से पहाड़ का संताप हो या एक माँ का अपने बच्चों से वियोग का संताप बेहद मार्मिक तरह से कहानी में दृश्य होते दिखता है।सूने होते गाँवों में एक-एक मकान को ढहते देखना और गिनती करना एक कमाल का रूपक है जो लेखक ने बहुत आत्मीयता के साथ रचा है।
इस उपन्यास में आपको 'एक टुकड़ा इतिहास' की चनुली भी दिखेगी और ' कोसी का घटवार' का नायक गुसाईं भी।
लेकिन जिसके लिए मैं निजी तौर पर लेखक की तारीफ़ करना चाहूँगा वह है- पहाड़ में व्याप्त जाति व्यवस्था पर उनका स्पष्ट रवैया और उसे सहने वाले लोगों की व्यथा पर साफ़गोई के साथ उनकी ईमानदार नज़र।
इस उपन्यास में लेखक ने स्पष्ट तौर पर व्याप्त इस व्यवस्था पर सीधे सवाल खड़े किए है जिससे अधिकांश पहाड़ के हमारे लेखक दूरी बनाकर बच निकलने की फ़िराक़ में रहते हैं।'टिकटशुदा रुक्का' से एक कदम आगे लेखक ने दलित विमर्श के मुद्दों पर स्त्री विमर्श को एक साथ लाकर एक बढ़िया कहानी रची है।
शेरू के साथ आनंद सिंह के संवाद बेहद मार्मिक है।इस किस्सागोई में 'अब का पहाड़' है जब जंगल घर तक आ पहुँचा है।'विकास' नाम का यह आदमखोर बाघ जिसकी बाघैन पहाड़ में अलग अलग रूपों में आ रही है, पहाड़ को अपना गास बना लेना चाहता है।सड़क अब पहुँच रही है…जब लोग पलायन कर चुके हैं।एक जमाने के खुशहाल घर अब वीरान खंडहर बनकर गाँवो को 'घोस्ट विलेज' की उपमा से अलंकृत कर चुके हैं।यह पहाड़ जो अब मैदानो के ठेकेदारों के 'इन्वेस्ट' का एक ज़रिया बन चुका है।यह पहाड़ जो अब 'भूतगाँव' बन रहा है…
अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों की तरह इस उपन्यास में नवीन जी का विकास के नाम पर हो रहे पहाड़ों के शोषण और उसकी पीड़ा का सजीव चित्रण मिलता है।पूरे उपन्यास में शुरुआत में तारतम्यता थोड़ी बिखरती नज़र आती है पर धीरे धीरे कहानी के आगे बढ़ने पर आप विस्मय से बार बार चकित होते जाते हैं! अलग अलग घटनाओं को कब और कहाँ पर जोड़ना है यह इस उपन्यास की ख़ासियत है और विशिष्टता भी।
191 पन्नों का यह उपन्यास आपको उस पहाड़ के पास ले आता है जिस पर विमर्श ज़रूरी है।उन संवेदनाओं पर आपकी नज़र ले आता है जिन्हे अनजाने में शायद हम भूल चुके है।समाज की उस सच्चाई पर आपको ला कर पटक देता है जिसे हमारे यहाँ ज़्यादातर समाज गुज़रे दौर की बात समझता है और उसे सीधे नकार देता है।और आख़िरकर एक जानवर और एक अकेले इंसान के रिश्ते की बेहद ख़ूबसूरत और मार्मिक कहानी कहता है यह उपन्यास।
अभी पढ़नी शुरू की है सर
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