मानव विज्ञान में नोबेल 2022 :क्या हम तार्किक बनेंगे ?
आज मानव विज्ञान में नोबेल पुरूस्कार 2022 की घोषणा हुई जिसमे Svante Paabo को मानव विकास के क्रम में विलुप्त हो चुके निएंडरथल मानव के जीनोम सीक्वेंस को तैयार करने के लिए नोबेल पुरूस्कार दिया जाएगा। जीनोम यानी किसी भी कोशिका के अंदर मौजूद जीन्स का समूह या सेट। 1856 में पहले निएंडरथल मानव जीवाश्म की खोज हुई। यह नाम जियोलॉजिस्ट विलियम किंग द्वारा सुझाया गया था, जिसे जर्मनी की निएंडर घाटी में फेल्डहोफर गुफा में पाया गया था। इस तरह का पहला जीवाश्म था यह जो होमो सेपियन्स से अलग था। लगभग ऐसे सभी फॉसिल्स हमें यूरोप से प्राप्त होते है। निएंडरथल मानव के सभी गुण लगभग वही है जो हम इतिहास की अपनी प्रारंभिक किताबों में आदिमानव के बारे में पढ़ते आये है , गुफा में रहना , शिकार या ढूंढ के खाना इत्यादि।
मुझे कुछ एक दो वर्ष पहले अमर उजाला में छपे राजेंद्र यादव के एक लेख का स्मरण हो आया मानव विकास में मिले आज के इस नोबेल को देखकर। उन्होंने अपने लेख में सम्पूर्ण विश्व के लिए तीन महान योगदानो और उनसे सम्बंधित व्यक्तियों का ज़िक्र किया था जिसमे - चार्ल्स डार्विन ,कार्ल मार्क्स और सिग्मंड फ्रायड का नाम एवं उनके योगदानों का एक मुख़्तसर ज़िक्र था।
चार्ल्स डार्विन जिनकी किताब Origin of Species मानव विकास के क्रम को सही तरीके से समझाती है कि कैसे एक कोशकीय जीवों से होते हुए माइटोसिस और मिओसिस जैसे सेल डिवीज़न से होते होते हम मानव बनते है और क्यों आज के बन्दर मानव नहीं बनते ! Survival of the fittest और adaptation जैसे तरीकों से होते होते हम मानव तक आते है। उसके बाद सभ्यता जैसी चीजें जन्म लेती है।
परन्तु हम यदि किसी भी धर्म के नजरिये से देखें तो सारे जीवों की उत्पत्ति आप एक साथ पायेंगे या फिर मानव पर ज्यादा फोकस पाएंगे जो की डार्विन के सिद्धांत के बिलकुल उलट दिखेगा। डार्विन का सिद्धांत एक प्रामाणिक सिद्धांत है परन्तु आज भी विज्ञान पढ़े लोगो से जब मानव की बात हो तो वो डार्विन के सिद्धांत को केवल किताबी बात तक ही स्वीकार करते है जिसका उपयोग परीक्षा में बढ़िया जवाब लिखकर अच्छे अंक लाने तक का है। यदि ऐसा नहीं है तो क्यों आज भी मानव -मानव में हम एक विभेद कर रहे है चाहे वो धार्मिक नजरिया हो, सामुदायिक या जातिगत अथवा रंग का !
इसका कारण ये जो मुझे लगता है कि हमारे शैक्षिक और सामाजिक माहौल में आज भी विज्ञान केवल किताब तक सिमित है या फिर हमने अपने धार्मिक रूढ़ियों को विज्ञान से ज्यादा महत्त्व दिया है। विज्ञान कभी स्वीकार करना नहीं सिखाता वरन प्रश्न पूछना सिखाता है जबकि धार्मिक रूढिया इसके एकदम उलट है। वो बस स्वीकार करना सिखाती है प्रश्न पूछना वहाँ एकदम वर्जित है। जहाँ जहाँ भी आप धार्मिक रूढ़िओं के खिलाफ बग़ावत देखते है उसका हश्र आप जानते है चाहे वो गैलिलियो के साथ का हो या डॉ० नरेंद्र दाभोलकर के साथ !
इसलिए हमें अपने शैक्षिक और सामाजिक माहौल में सवाल करना सिखाना होगा ताकि हम एक वैचारिक रूप से समृद्ध और व्यावहारिक रूप में एक वैज्ञानिक पीढ़ी तैयार कर पाएं। वरना राहुल सांकृत्यायन जैसे लोग 'मानव समाज' और हरारी जैसे बुद्धिजीवी Sapiens जैसी किताब लिखते रहेंगे और Svante Paabo जैसे लोगो को नोबेल भी मिलता रहेगा पर नतीजा सिफ़र अर्थात शून्य ही होगा।
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