आख़िर क्यों चुनते वो अपना पारम्परिक पेशा ?

 

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आज दिनांक 12  अक्टूबर 2022  को अमर उजाला में एक लेख प्रकाशित हुआ -' कुमाऊनी  वाद्ययंत्रों पर मंडरा रहे संकट के बादल ' जिसमे यह बात कही गयी है कि ,"पिछले एक दशक में वाद्ययंत्रों  को बनाने वाले कारीगरों की संख्या में काफी कमी आयी है इसकी ख़ास वजह नयी पीढ़ी का इस ओर ख़ास रूचि नहीं लेना और बदलते दौर में लोगो का इन यंत्रों को कोई तवज्जो नहीं देना है " इस लेख को पढ़कर कुछ था मन में जो कौंध सा गया। 

    आपने, इन वाद्य यंत्रों को बनाने वाले कारीगर तो छोड़िये बजाने वाले लोगो की स्थिति पर ध्यान दिया है? उनके जीवन स्तर, शिक्षा और वेशभूषा पर? क्या आपको वो उतना ही सामान्य लगता है जितना कि एक आम मध्यमवर्गीय नागरिक  और उसका जीवन स्तर !  आखिर क्या कारण है इस दयनीय स्थिति  का ? और ऊपर जो अखबार को इतनी फ़िक्र है क्या अख़बारों ने कभी उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति का विश्लेषण करने की कोशिश की? हाँ उनके 'जीवन' पर कई लाखो के प्रोजेक्ट और पीएचडी की डिग्री के लिए थीसिस अनवरत लिखी जा रही होंगी पर क्या कुछ बदला है? क्या समाज उन्हें सही मायनो में एक आम नागरिक समझता भी है? 

    उनकी पहचान समाज को खुश करने,उसका मनोरंजन करने के लिए एक 'साधन' के इलावा कुछ नहीं समझी जाती। उनकी कला की बस एक 'कीमत' है, बस एक आर्थिक कीमत इसके इलावा उनकी पहचान केवल ' बजाने वाले' से ज्यादा नहीं समझी जाती।  शादी-बारातों में समाज तमाशबीन बनने के बाद उन्हें 'अलग से खाना और शराब' जरूर दे देता है। 

    आज ही के  इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख Her Story is our Story में फ्रांस के राजदूत इमैनुअल लिनन ने इस साल साहित्य की नोबेल प्राइज विजेता एनी अरनॉक्स के बारे में लिखा है, " Shame can not be forgotten, this became the central subject of her book Shame(La Honte,1997). She is no stranger to the works of certain Indian Dalit writers such as Om Prakash Valmiki(whose autobiography Joothan is recently translated into French) and Mulk Raj Anand . "आप में से जिसने भी जूठन पढ़ा होगा आप उस वेदना को समझते होंगे थोड़ा सा ही ,मैं उम्मीद करता हूँ। आखिर क्यों ओमप्रकाश अपना पुश्तैनी पेशा  ही नहीं अपनाते? क्योंकि वो कहते है कि  पिता को लगता था कि  पढ़-लिखकर 'जाति' चली जायेगी पर वो नहीं जानते है कि ये तो मरने  पर ही जायेगी !

     डॉ0  आंबेडकर लिखते है कि  यहाँ  धर्म का ढांचा एक मीनार (caste system ) की तरह है जिसमे मंजिलें  तो है पर सीढिया नहीं है।  यानी आप जहाँ रहे उसी के हो गए आप चाहे कितने भी काबिल क्यों न हो जाए पर उस मीनार की ऊपरी  मंजिल पर नहीं जा सकते। इन वाद्य यंत्रों को बनाना और बजाना आपकी काबिलियत नहीं वरन आपकी 'जाति ' से जुड़ा मसला है और  जिस पेशे या यूं कहूं जाति  को सम्मान से देखा ही नहीं जाता तो उनकी आने वाली पीढ़ियां क्यों अपना परंपरागत पेशा चुनती ? एक ज़िल्लत झेलने के लिए ! आर्थिक सम्मान और सामाजिक सम्मान में जमीं आसमान का अंतर है।  पैसा क्या कभी सामजिक सम्मान दिला पाया है? ऐसा होता तो ड्रग स्मगलर और काली कमाई करने वाले सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित व्यक्तियों की फ़ेहरिस्त में  शुमार होते। इसलिए कम से कम जितने लोगों को  लगता है निम्न वर्गों की आर्थिक हालत सुधरने से उन्हें सामाजिक सम्मान मिल जाता है तो साहब या तो आप किसी बड़ी गफ़लत में जी रहे है या दोगले है। 

     क्या आपने कभी विचार किया कि क्या हमारे इन ढोल दमाऊँ बजाने वाले या बनाने वालों में एक ही जाति  के लोग क्यों है? यहाँ तक  कि  खुद दूसरी अनुसूचित जातियां (जिन्हे खुद तथाकथित सवर्णों  से भेदभाव मिलता है )इन्हे  खुद  से निम्नतर मानती है और रोटी-बेटी तक का उनसे सम्बन्ध नहीं रखती! वो तक इनसे एक निश्चित दूरी बनाने की कोशिश करती है!

    अपने हालिया प्रकाशित उपन्यास देवभूमि डेवेलपर्स में नवीन जोशी जी लिखते है , जब नायक पुष्कर तिवारी अपनी पत्नी कविता से कहता है -" यह खिड़की और भारी दरवाज़ों पर नक्काशी देख रही हो? इतनी महीन कारीगरी तुमने कहीं और नहीं देखी होगी। यह उत्तराखंड के शिल्पकारों की विशेषता है। लेकिन आज ये कारीगर नहीं मिलते। कैसे मिलेंगे ? हम उनका और उनकी कला का सम्मान करने के बजाय उनका अपमान करते रहे। वो हमारे मकान बनायें,उनपर नक्काशी करें , हमारे लिए ढोल बजाये, नाचे और हमने  उन्हें अछूत, लाचार , गरीब और गुलाम बनायें रखा। क्यों सीखती उनकी अगली पीढ़ी यह हुनर?  वही क्यों  क्या हम सबको नहीं सीखना चाहिए था? जिस संस्कृति पर हम गर्व करते नहीं थकते उस संस्कृति को किसने सींचा? पाला पोसा ? यहाँ तो खुद को ऊंची कहने वाली जातियों के लिए इन्हे छूना  तक अपमानजनक था  सीखना और बजाना तो दूर। 

    अखबार के  इस लेख में एक पंक्ति उनकी सामाजिक स्थिति से तुलना करके नहीं दिखाई गयी है ये देखकर अफ़सोस  होता है कि  क्यों केवल एक पक्ष दिखाया  जाता है।  आपको समस्या लगती है पर कारण ढूढ़ने या लिखने की जहमत क्यों करनी! ये वही दोगलापन है जो समाज में भी दिखता  है। इसलिए समझ के लिए हमेशा सिक्के के दोनों तरफ देखे जाने जरूरी है।  असल ज़िन्दगी  में 'शोले का अमिताभ वाला सिक्का ' नहीं होता। 

     


टिप्पणियाँ

  1. Sir , you have decently depicted this issue .It is the irony that they people are not even treated as human being by the society . Caste is the basis of all discrimination .

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  2. जिन्दगी वास्तव में कोई फिल्मी ड्रामा नहीं है, इसकी वास्तविकता से रूबरू होने की आवश्यकता है।

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  3. Ham 21 century m jee rhe h...pr samaj ka doglapan abi b nhi bdla h

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