जमी हुई झील और फूलों का संसार
रुद्रनाथ का अपना सफ़र पूरा करने के बाद हमारा अगला पड़ाव रहा जोशीमठ। हाँ वही अख़बारों की सुर्ख़ियों वाला जोशीमठ जहां धरती ने अपना सीना चीरकर जता दिया है अब इंसान और प्रकृति का मुक़ाबला आमने सामने हो चला है! जोशीमठ पहुँचते ही सड़क किनारे दिखने लगे टूटे या यूँ कहें बुलडोज़रों से ढहाए गए मकान और मिट्टी में ज़मींदोज़ ना जाने कितनो की भावनाएँ, ख़्वाब…यादें।
जोशीमठ पहुँचने पर जब रात के ठिकाने की बात आयी तो प्रकाश और मुझे, दोनों को चाहिए था कोई सस्ता कमरा।ट्रेकरों को कोई आलीशान कमरे नहीं चाहिए रहने को बस सर ढकने को एक छत और पेट के लिए एक बिस्कुट का पैकेट भी काफ़ी होता है। इसलिए किसी ने जब किसी धर्मशाला का पता बताया तो हमने अपनी मोटरसाइकिल उस ओर दौड़ाई पर पता चला वो धर्मशाला अब बंद हो गई है।किसी ने शंकराचार्य मठ पता बताया, जब पहुँचे तो वहाँ के पुरोहित ने साफ़ मना कर दिया जबकि कमरों में ताले देख समझ आ गया था कि जगह तो है पर वो रहने के लिए देना नहीं चाहते।
ख़ैर किराए पर अख़िरकार एक 1500-2000 का कमरा मिला जो वहाँ बाक़ी के मुक़ाबले सस्ता था।सुबह रुद्रनाथ से सगर तक वापसी का ट्रेक और फिर लगभग 60-70 Kms बाइक चलाकर थक गए थे।इसलिए बिस्तर में पड़ते ही ना जाने कब नींद ने आग़ोश में ले लिया।
अगली सुबह उठते ही पहले औली जाने का प्रोग्राम तय हुआ। केवल कैमरा लिया और दोनों एक ही बाइक में सवार हो गए। औली में इतने रास्ते कटते है और टेढ़े मेढ़े है कि इंसान आसानी से भटक सकता है। अख़िरकार जहां पहुँचे वहाँ से सामने की चोटियों का दृश्य देखने लायक़ होता है। एक ओर सामने नंदादेवी मुस्कुराती हुई अपने पूरे वैभव्य में दिखती है तो एक ओर हाथी घोड़ी पर्वत।त्रिशूल भी और नीति दर्रे की ओर जाती घाटियाँ भी।
यहाँ आर्मी और डीआरडीओ दोनों की कॉलोनी है इसलिए आगे जाने को साफ़ मना कर दिया।नाम पता बताने पर भी आर्मी के सिपाही ने वहाँ से जाने से मना कर दिया। और बताया कि थोड़े पीछे से जाया जा सकता है, वहाँ से कुछ 1-2 Kms पैदल है। कमाल की बात है वो रास्ता जहां पर से मुड़ता है वहाँ पर लिखा है-“ प्रवेश निषेध है और अतिक्रमण पर सख़्ती ने निपटा जाएगा” । अब ऐसे में भला किसी की हिम्मत हो कैसे?
उस रास्ते से जाने के बाद हम पहुँचते है औली स्कीइंग मैदान के बिल्कुल नीचे।औली में अंतरराष्ट्रीय स्कीइंग प्रतियोगिताएँ आयोजित होती है।बेस से आप 500 रूपए प्रति व्यक्ति अदा कर रोपवे चेयर से असमानी उड़ान भर सकते है, ऊपर बनी कृत्रिम झील तक जाने के लिए।पर पैदल जाने में भी कोई ज़्यादा दूरी नहीं है।हाँ 45 डिग्री की चढ़ाई ज़रूर है।
यह एक बेहद सुन्दर लोकेशन है और पूरे औली में इससे सुन्दर जगह आपको नहीं दिखेगी। लगभग 300 डिग्री पर मौजूद बर्फ से लदी चोटियाँ और एक ओर गोरसों बुग्याल, और कर्ज़न ट्रेल और क्वारी पास को जाने वाला रास्ता…और सामने झील के पास वो होटल।जो बिल्कुल दिवाली में दुकानों में मिलने वाले पोस्टरों के घर जैसा था।
समय कम था, वरना मन बहुत था गोरसों बुग्याल जाने का। क्वारीं पास और कर्ज़न ट्रेल के लिए आपको वन विभाग जोशीमठ से पास बनाना पड़ता है, चाय वाले भैया ने बताया। मेरे हाथ में कैमरा देख कइयों ने मुझे कोई फोटोग्राफर ही समझा। उनमें से एक थे डॉo सोलंकी और उनके भाई। दोनों दिल्ली में रहते हैं और आजकल अपने उत्तराखण्ड भ्रमण पर है।मैंने दोनों की फ़ोटोज़ ली और बाद में उन्हें भेजी भी जिसकी उन्होंने काफ़ी तारीफ़ की। प्रकाश का फ़ोन पर बतियाने का शौक़ यहाँ भी क़ाबिल-ए-गौर था। मेरे लिये प्रकृति ही मेरी मंज़िल और कैमरा ही मेरी वसीयत।एक फूल वहाँ इतना ज़्यादा लगा था और इतना ख़ूबसूरत कि जितनी तारीफ़ करूँ कम है।
वापस लौटने लगे प्रकाश और मैं बाइक में बतियाते जा रहे थे।कैमरा सम्भाल लिया था।हम कुछ आगे निकले ही थे,और अचानक…काकड़ ( barking deer)! सड़क के बीचोंबीच! कैमरा निकालने तक वो भाग गया। पर सुकून था कि रुद्रनाथ में ना सही पर यहाँ तो कुछ दिखा। बाइक रोकी तो सुनाई दी बार बार छींकने की सी आवाज़ मैं कैमरा लेकर सड़क ने नीचे देखने लगा तो देखा कि उस काकड़ का साथी था! अचानक वो भी भागा पर कैमरे में क़ैद कर लिया गया था। हम दोनों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।
जोशीमठ पहुँचते ही पहले प्रकाश ने अपनी बाइक का क्लच का नट ठीक करवाया, होने को इससे हमें थोड़ा देर ही हुई। नाश्ता सुबह से किया नहीं था तो सोचा आगे विष्णुप्रयाग में ही करेंगे।
जोशीमठ से निकलने पर आगे पहले मिला विष्णुप्रयाग और फिर गोविंदघाट। मैंने कभी ध्यान नहीं दिया कि इस जगह का नाम गुरु गोविंद सिंघ जी के नाम पर होगा। सस्ते खाने का पता पुलिस वाले भैया ने बताया जो कर्णप्रयाग के रहने वाले थे।हालाँकि खाना बेकार ही लगा मुझे पर खाया क्योंकि ज़्यादा जगह पर खाना महँगा था। दिन का ख़ाना खाने के बाद अब सफ़र तय करना था एक अलग दिशा का जहां मैं पहले कभी नहीं गया था-पुलना का।
गोविन्दघाट से 04 Km की दूरी पर है पुलना।एक छोटा सा गाँव। सड़क यहीं तक है। लक्षमणगंगा दूर थोड़ी दूर दिखाई देती है।कुछ तबाह हुए मकान भी दिखते है।शुरुआत में ही एक पुलिस कर्मचारी या होमगार्ड भाईसाहब।बाइक पार्किंग में लगाकर अब हेमकुंड के लिए रजिस्ट्रेशन करना था। यहाँ पर लगभग 90% सब सरदार भाई बहनें, बूढ़े और छोटे बच्चे दिखे। रजिस्ट्रेशन ऑनलाइन करना होता है जिसके लिए वहीं के युवक युवतियाँ रखे गए है काउंटर पर। भुगतान था या नहीं याद नहीं आ रहा।पर अब हमारे भीतर एक नई स्फूर्ति थी…आगे सब पैदल रास्ता था। प्रकाश अपनी हरकतों से यहाँ भी कहाँ बाज़ आने वाला था! “यार मुझे बहुत जल्दी ठंड लग जाती है” कहने वाला प्रकाश आइसक्रीम खाने को उतारू था।मैं कोल्डड्रिंक पर अड़ा था। अख़िरकार दोनों ने अपनी अपनी करनी की। अब सिक्खों के जत्थे में बहुत कम बाक़ी विधर्मी थे जिनमे हम दोनों भी थे।
घाँघरियाँ में ज़्यादातर दुकाने ऐसी ही दुकानों की है।कुछ होमस्टे भी है। कई लोगों ने अपनी ज़मीन को पार्किंग प्लॉट में तब्दील कर दिया है।चार्ज 100रुपए प्रति बाइक।घोड़ों के पानी पीने के लिए भी सुविधा बनाई है। हमने अपना सफ़र शुरू किया।
ठीक-ठाक स्लोप वाला रास्ता है जो घाँघरिया तक 10 Kms का है। बड़े पत्थरों के खडंजे वाला रास्ता है।जहां पूरे रास्ते भर घोड़े की लीत की महक नथुनों को बारम्बार भेदती जाती है।पर आप मजबूर होते है।कहीं कहीं घोड़े के मूत्र के तालाब भी दूर से अपना आभास करवा देते है।और आप नाक सिकोड़कर चट से क़दम तेज़ कर देते है।
जगह जगह पर सफ़ाई कर्मचारी रास्ता साफ़ करते और ठेठ देसी होते हुए भी सटीक पंजाबी में , “ वाहे गुरु जी दी कृपा” की दुहाई देते आपसे बख़्शीश की उम्मीद लगाए एक से दूसरे इन्सान को बार बार रटी लाइनें दुहराते जाते है। नीचे की ओर रेलिंग लगी है और चिनार के पेड़ बहुतायत है।गोविन्दघाट से घाँघरियाँ जाने वाला चॉपर हर 5 मिनट में अपने दो चक्कर पूरे कर देता है।तकनीक और पूंजीवाद का यह अनोखा जोड़ है जो धार्मिकता में अपना मुनाफ़ा कमा रहा है।रास्ते भर में जगह जगह दुकानें है।जहां पराँठों से लेकर बाल्टी में डूबी कोल्डड्रिंक आपको उस दौर में ले चलती है, जब गाँव घरों में फ्रिज नहीं होते थे और दुकानों में ऐसे ही कोल्डड्रिंक बाल्टी में डुबोयीं दिखती थी। रास्ते में पानी के नल लगे है।और कई जगह पर पंजाबी में लिखा कपड़ा कि, मेडिकल कैंप इस तरफ़ है।हालाँकि ऐसा कैम्प जैसा मुझे कुछ दिखा नहीं।
लगभग 4-5 Kms चलने के बाद नदी के दाहिनी ओर एक घाटी जाती दिखती है।पूछने पर दुकानदार ने बताया यह ‘ काकभुशुण्डी’ ताल के लिए जाती और जो नदी यहाँ पर लक्ष्मणगंगा में मिल रही है वो काकभुशुण्डी नदी है।इसे आप छोटा संगम कह सकते हैं। “भविष्य में जाएँगे कभी” यह आह मन में कैदकर हम दोनों आगे बढ़ते है।
अचानक बूँदाबारी होनी शुरू हो गई।हम दोनों ने अपने रेनकोट डाल लिए। पर थोड़े ही आगे जाकर चाय पीने एक दुकान में रुके। सामान अब दुगुनी क़ीमत पर है।चाय 20 रुपये और बिस्कुट भी अपने दुगुने रेट पर है। चाय पीकर हम आगे बढ़ते जाते है। पहाड़ी महिलाओं को इतने तेज़ी से सामान पीठ पर लादे, देख कुछ सरदार युवा अचंभित है। पर हमारे लिये ये सामान्य बात है। सरदारों के जत्थों में गोद में लिए बच्चों से लेकर सफ़ेद दाढ़ी वाले सरदार और महिलायें तक शामिल है।
अख़िरकार लगभग 04 -05 घंटे चलने के बाद हम लोग घाँघरियाँ पहुँच चुके थे। यात्रियों को ढोता चॉपर और टेंट देखकर सुकून महसूस हुआ। लेकिन सबके पीछे पीछे हम अभी आगे बढ़ते जाते है।और प्रवेश होता है- चकाचौंध से भरे एक बाज़ार में! उम्मीद से परे थी यह जगह।बिल्कुल अप्रत्याशित…उम्मीदों से एकदम अलग।
घाँघरिया पहाड़ के कई क़स्बों से ज़्यादा आधुनिक लगता है।लगभग चारों ओर ऊँची पहाड़ियों से घिरा यह एक छोटा सा सिमटा इलाक़ा है।जीएमवीएन का गेस्ट हाउस भी है और गुरुद्वारा भी। पुलना से लेकर घाँघरियाँ तक ज़्यादातर होर्डिंग अंग्रेज़ी और पंजाबी में लिखी हुई दिखती है। “ मुझे पंजाबी पढ़नी लिखनी और बोलनी आती है” के दंभ के लिए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मैंने रास्ते भर ना जाने कितनी बार धन्यवाद दिया।उन्हीं का विज़न था कि नवोदय विद्यालय खोले जाये और उनमें त्रिभाषा सूत्र लागू हो अनिवार्य रूप से।जवाहर नवोदय विद्यालय का पढ़ा हर बच्चा देश की कोई तीसरी भाषा ज़रूर जानता है।
अब रात की जुगत करनी थी…तो कदमों पर बिना ब्रेक लगाये हम भी सरदारों के जत्थे में हो लिए जिसकी मंज़िल गुरुद्वारा थी।यहाँ इतनी भीड़ थी जितनी शाम के वक़्त दिल्ली में राजीव चौक पर होती है। काउंटर पर जाते ही हमने,जो विधर्मी थे; पूछा, “पाजी रहने के लिए जगह मिलेगी?” किन्ने बंदे हो? काउंटर वाले भाई ने पूछा। “दो लोग है।” “ अठारा नंबर तों चले जाओ तुस्सी” उन्होंने जवाब दिया, एक पर्चा पकड़ाते हुए। यहाँ कोई फ़ीस नहीं थी।
लेकिन भीड़ देखकर लगा कि रह तो लेंगे कहीं पर ज़मीन में कंबल डालकर, पर सामान महँगा था मेरा पास -अपना कैमरा जो अभी ईएमआई पर है।इसलिए गुरुद्वारे में रहना थोड़ा सही नहीं लगा।तो बाहर आकर रूम ढूँढने लगे जो सस्ता मिल जाये।पर बाहर आकर हम दोनों बात करने लगे कैसे जोशीमठ में हमें शंकराचार्य मठ में रूम होते हुए भी कमरा नहीं दिया गया और यहाँ गुरुद्वारे में इतनी भीड़ में भी जगह दी गई।सिखों के प्रति मेरा मन असीम कृतज्ञता से भर गया। मेरी नज़र में वो इकलौता धर्म है जिसके दिल में सारी मानवता के लिए प्रेम में चाहे आप उनके धर्म से इत्तफ़ाक़ रक्खे या नहीं।
अख़िरकार 1000 रुपये में एक टेंट में मालिक अंशुल भाई तैयार हुए जो मुख्य क़स्बे से थोड़ा हटकर थे..मेरे मनमाफ़िक सुनसान जगह में। बढ़िया टेंट है, अंदर भी टॉयलेट बाथरूम भी।हमें हैप्पी नामक लड़का ले चलता है।मैं उससे पूछता हूँ, “ यार नाखून काटने के लिए नेलकटर चाहिए था” क्योंकि पैर के अंगूठे का नाख़ून दर्द करने लगा था। “ मेरे जेब में ही रखा है” हैप्पी ने जवाब दिया। “बहुत ख़ूब” मैंने कहा। पूछने पर हैप्पी ने बताया कि, उसने बारहवीं के एग्जाम दिये थे पास हो गया है। उसके साथ एक लड़का और है। दोनों अपने गाँव से छुट्टियों में काम के लिए आए है।पिता दिल्ली में ‘प्राइवेट जॉब’ करते है। पहाड़ों में ये बहुत आम है बच्चों का छुट्टियों में कुछ काम करके पैसे जोड़ना। सबके लिए छुट्टी का मतलब दादी नानी के घर की मौज नहीं होती।
रात को खाने के बाद जब वापस टेंट में आए तो हैप्पी ने पूछा, “ भाईजी आपको कुछ और तो नहीं चाहिए?” मैंने जवाब दिया, “ नहीं यार धन्यवाद भाई”। हैप्पी ने आगे हिदायत दी-“ ऊपर बहुत बर्फ है, जूतों के बाहर डालने वाले मौजे ले लेना आप किसी दुकान से फिसलन बहुत होगी।चाहो तो 4 Km चढ़ाई तक घोड़ा ले सकते हो।” मैंने कहा नहीं यार हम अच्छे ट्रेकर है, ख़ुद जाएँगे।
अगली सुबह उठे तो रुद्रनाथ ट्रेक से पैर दुख रहे थे, पानी काफ़ी ठंडा था।जल्दी करते करते भी हेमकुंड के लिए छः बज ही गए थे।थोड़ा आगे जाने पर घोड़े वाले ग्राहकों की ओर ताकते मिले। शायद वज़न तुलाकर घोड़े का रेट तय होता था।कंडियों में भी नेपाली मज़दूर लोगों को ढो रहे थे। छोटी उम्र के नेपाली मज़दूर बच्चे भी इनमें शामिल थे।
अब आपको अच्छी ख़ासी चढ़ाई चढ़ने को मिलेगी और केवल भोजपत्र( Himalayan Birch) के पेड़।रास्ते के किनारे ग्लेशियर था जिसके भीतर बह रहा था, हेमकुंड झील से आता पानी…बहुत खूबसूरत दृश्य था, वॉटरफॉल कैप्चरिंग अगर आती मुझे कैमरे पर तो कमाल का फोटो क्लिक हो सकता था!
आगे बढ़ रहे थे और ऊपर मंज़िल देखकर बस ये मन में था, “ बाप रे इतना ऊपर जाना है!” रास्ते में अपने परिजनों को पहाड़ों की ख़ूबसूरती दिखाते हुए सरदार।कंडियों में जाते हुए बुजुर्ग और बच्चे…हांक लगाते घोड़े वाले…और प्रकृति के मोह में बंधा हुआ मैं…अपनी रौ में बहते ख़याल। अपनी धुन में कुछ दूरी पर चलता प्रकाश।और दौड़ होने पर भी चेहरे के भाव, “ भाई…एक”
हेमकुंड से लगभग 02 Km नीचे से बर्फ शुरू हो चुकी थी। लगभग 7 फ़ीट बर्फ़ को काटकर, श्रद्धालुओं के लिए रास्ता बनाया गया था।पैर फ़िसल रहे थे और मैं अपने कैमरे को गले में टाँगे संभल कर चल रहा था। दो बार फिसलते फिसलते बचा भी।
अचानक एक पंजाबी लड़के ने मुझे देखते कहा, “ यार ये dslr है?” मैंने कहा, “ मिररलेस है” पर फिर कहा, हाँ वही समझ लो। उसने कहा, “ यार मेरी फ़ोटो खींच देगा भाई तू? मैं वड्डी दूर तें आया यार प्रा, बड़ा ग्रीब बंदा हाँ…फ़ोन यार स्विच ऑफ हो गया मेरा” मैंने कहा हाँ हाँ खींच दूँगा। उसके बाद लगभग उसने 1.5 Km के सफ़र में कई बार दुहराया, “ मैं वड्डा ग्रीब बंदा हाँ यार , हुण अगले म्हीने कनेडा जा रहा हाँ, कोई कंपनी है जो एलईडी बल्ब बनांदी है, सारा खर्चा वो ही उठा रे है यार” कई बार उसने वो बातें दुहराई। पंजाबी सीखी थी इसलिए मैंने उससे पंजाबी में ही बात की।भाषाएँ सीखना कैसे राष्ट्रीय एकता को बढ़ा सकता है, कभी सोचा है!
आख़िरकार हम हेमकुंड साहिब में थे।गुरुद्वारे की छत तक बर्फ थी जो काट दी गई थी। बग़ल में मर्दों और महिलाओं के लिए अलग अलग स्नान कुंड थे। गुरुद्वारे में अरदास चल रहा था।दो तीन नेपाली भाई जमी बर्फ फावड़े से हटाने में मुस्तैद थे।मैं अपने ट्राईपोड को झील के किनारे फ़िक्स करने लगा ताकि वीडियो शूट हो सके।यह झील सात पहाड़ियों से घिरी है।बर्फ़ से लकदक सारी पहाड़ियाँ डिज़्नी कीकार्टून फ़िल्म ‘फ्रोज़न’ की यादें ताज़ा करवा रही थी। मौसम साफ़ था। झील जून में भी जमी हुई थी…थोड़ा पिघलना शुरू हो रही थी।गुरुद्वारे के बग़ल में लक्ष्मण मंदिर भी था जो बर्फ़ में धँसा हुआ था। जैसे ही वीडियो और फोटो लेकर मैं स्नानघर की तरफ़ गया तो वो पंजाब वाला भाई दिखा और कहने लगा, “ यार मैं तेनू किन्ना ढूँढिया, किंवे था तू?” मैंने उसकी नाराज़गी देख उसकी कुछ तस्वीरें उतारी। दूसरी ओर को जाने पर प्रकाश दिखा, वो उस बर्फ़ीलें पानी में नहाने की उतारू था, पर उसे चाहिए थी वीआईपी सुविधायें! चेजिंग रूम, तौलिया वगेरह! इसलिए एक दो बार मेरे झिड़कने पर वो केवल मुँह धोकर ही चुप हो गया।मेरे अंदर ना कोई भक्तिभाव था ना ऐसे प्रपंचों के लिये कोई इज्जत इसलिए मेरा काम खतम हो चुका था। प्रकाश गुरुद्वारे में अंदर गया।
उसके बाहर आने के बाद हम दोनों लंगर की ओर गये।मैंने सिर्फ़ चाय पी और उसनेचाय के साथ खिचड़ी जिसकी उसने बहुत ज़िद की खाने की पर मैंने मना कर दिया।मन नहीं था केवल इसलिए।
अब उतरने की जल्दी थी हमें क्योंकि समय पर नीचे उतरकर फूलों की घाटी भी आज ही जाया जा सकता था।हम तेज़ी से नीचे उतर रहे थे। घोड़े और कंडे वाले लोगों को ऊपर ले जाने का मोलभाव कर रहे थे।फूलों की घाटी के लिए रास्ता, घाँघरिया से लगभग 200-300 मीo ऊपर आकर दाहिने हाथ जाता है; जहां से हम अभी लगभग 1 Km ऊपर थे। एक दुकान वाले से पूछा तो उसने कहा केवल 11:00 बजे तक जाने देते है। घड़ी देखी, 11:40 हो रहा था। हमने सोचा जाकर गेट पर ख़ुशामद कर लेंगे। प्रकाश तेज़ी से दौड़ने लगा और मैं पीछे एक नियत चाल से।
अचानक जहां से रास्ता मुड़ता है वहाँ पर देखा, तो लिखा था खुलने का समय 07:00 से 12:00 बजे। मेरी घड़ी में 11:54 हो रहा था। प्रकाश क्योंकि काफ़ी आगे निकल चुका था इसलिए मुझे संतोष हो चुका था कि उसने टिकट बनवा लिया होगा। आगे जाकर गेट पर प्रकाश खड़ा था। उस वक़्त ऐसा महसूस हुआ जैसे हमने ओलंपिक में उसेन बोल्ट को हरा दिया हो। गेट पर एक तस्वीर लेने के बाद हम आगे बढ़े। गेट से ही फूलों की घाटी नेशनल पार्क की जैव समृद्धता आपके सामने बाँहें फैलाये आपका स्वागत करने लगती है। रेलिंग के साथ बनी पगडंडी आपको इंस्टाग्राम के रील्स की याद दिला देती है, इतनी ख़ूबसूरत लगती है।
होने को कुछों ने हमसे कहा था कि अभी फूलों की घाटी जाकर कोई फ़ायदा नहीं है, पर हमें फिर भी जाना था। क्योंकि दूसरी बार ना जाने कब मौक़ा मिलता!
सबसे पहले एक ग्लेशियर पार किया जिसके नीचे एक अच्छा ख़ासा नाला बह रहा था। वहाँ पर एक परिवार भी दिखा , शायद प्लेन से था। आगे बढ़ने पर भयूँडार गंगा पर बना पुल दिखा।पुल में जंग लग चुका था और नीचे नदी का बहाव काफ़ी तेज़ था। यह नदी फूलों की घाटी के बिल्कुल बग़ल से बहती है। आगे बढ़ने पर नया नया बना खड़ंजा दिखता है। थुनेर और भोजपत्र के पेड़ भरे पड़े है। अजीबोग़रीब पौधे है कुछों में फ़ूल आने को है और कुछ केवल पौधे है।पर पौधों में विविधता दिखने लगी है।
दो और ग्लेशियर पार करने पर हम फूलों की घाटी के बीच थे। कुछ लोग आगे जाते दिखे थे जो शायद टिपरा ग्लेशियर की ओर गये हो।यह ग्लेशियर घाटी से काफ़ी आगे है। ग्लेशियर से निकलते पानी को सीधे मुँह लगाकर पीने का एक अजब संतोष होता है, इसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। पानी की वो ठंडक जो गले को तर करने के साथ साथ भीतर उतरती है, तो अंग प्रत्यंग में अपना आभास करवा देती है। ऐसी जगहों पर आप प्रकृति और ख़ुद में एकात्म महसूस करते है, जो शोरगुल की शहरी ज़िंदगी में कभी महसूस नहीं हो सकता।
अभी फूल खिलने शुरू हो रहे थे। कहीं कहीं सफ़ेद बैगनी बुरांश भी दिख रहा था और अलग अलग छोटे छोटे अनेकों फूल चारों ओर बर्फ़ की चोटियों के बीच अपनी ख़ूबसूरती संजोये हुए थे। दूर कोई कब्र भी दिखी। कुछ तस्वीरें क्लिक की।और फूलों की तो ढेर सारी।जून की शुरुआत में मौजूद फूल देखने के लिये, नीचे लिंक पर क्लिक करें।
Photo gallery: Valley of Flowers
एक अकेला लड़का भी दिखा, जो वहाँ किसी पार्टी में सरीखे कपड़े पहनकर आया था। पूछने पर उसने बताया कि अभी बारहवीं किया है और अकेला घूमने आया है। जानकर संतोष होता है कि, नये लड़कों में घूमने का क्रेज़ बढ़ा है, शायद ये इंस्टाग्राम या यूट्यूब के ब्लॉगरों की देन हो।
घाटी में लगभग 3 घंटे बिताने के बाद अब वापसी का समय था। रास्ते में पाइका( एक तरह का चूहा जो बुग्यालों में मिलता है) दिखा जो सच में बड़ा प्यारा था। उसके काफ़ी नज़दीक जाने पर भी वो डर नहीं रहा था, और अपने छोटे छोटे दांतों से घास कुतरने में मशगूल हो जाता, फिर बिल में चला जाता…उसका यह क्रम काफ़ी देर तक चला। चढ़ाई के बाद नीचे उतरने को थे अचानक मैंने सामने की चट्टान पर कुछ देखा! प्रकाश से मैंने कहा, “ वो देख मोनाल और उसके बच्चे!” मैं तुरंत कैमरा ऑन करके फ़ोटोज़ क्लिक करने लगा। वीडियो भी बनाया। मादा मोनाल को अपने चूज़ों के साथ इतना क़रीब पहली बार देख रहा था। इसने हमारा दिन बना दिया था। हम तेज़ कदमों से वापस लौट रहे थे…
गेट पर पहुँचते ही हम गेट कीपर और फ़ॉरेस्ट वालों की नाराज़गी के शिकार हुए। प्रकाश को उन्होंने पाँच बजे तक वापसी का बताया था, जो हमें ध्यान नहीं रहा। अभी 6:00 बजने को थे! माफ़ी मंगाकर हम आगे बढ़े।
नीचे साफ़ नाले के पास एक अलहदा दृश्य दिखाई दिया। एक पंजाबी महिला पानी से खेल रही थी जिसके शौहर उसका वीडियो बना रहे थे पर अनऑफिशियली और भी फोटोग्राफर अपनी कला को परख रहे थे कैसे बिना उस महिला को पता लगे वो भी उसकी अठखेलियों को अपने मेमोरी कार्ड में जगह दे सकें।पता उस महिला को भी था।पर दिखा वो भी ख़ुद को अनजान रही थी। हम आगे बढ़े और अपने टेंट को चल दिये।
अपनी चाय की लत के चलते पहले एक दुकान में चाय पी फिर थोड़ा देर सोचा कि जीएमवीएन के गेस्ट हाउस में बैठा जाय।बैठे ही थे कि अचानक एक डॉक्टर साहब, जानवरों के डॉक्टर थे जो काफ़ी हंसमुख थे ।उन्होंने कहा कि अगर उन्हें पहले पता होता तो वो भी फूलों की घाटी चलते। वो गोपेश्वर से थे।और ऐसी जगह में ड्यूटी करने की उनकी कोफ़्त ना चाहते हुए भी उनके चेहरे से झलक रही थी। जब किसी सैलानी दल ने गेस्ट हाउस का किराया पूछा तो हमने एक दूसरे की तरफ़ देखते हुए कहा कि काश हम भी कल पहले यहाँ आये होते! किराया एक कमरे का 1500 मात्र था, मात्र इसलिए क्योंकि बाँकी होटलों से यह कम था।
शाम को ही अंशुल भाई को पेमेंट कर हमें अगली सुबह जल्दी निकलना था।इसलिए जल्दी सोना था। बिस्तर में पड़ते ही नींद आ गई।सुबह हम जल्दी निकल गये इसलिए हैप्पी को नहीं मिल पाये।इसका मुझे वाक़ई अफ़सोस है।सारा सफ़र कमाल का रहा था। अपनी अपनी मोटरसाइकिल पर लगभग 3 दिन से बिन नहायें पसीने से भीगे कपड़ों में अब ख़ुद अजीब लगने लगा था।जैकेट रास्ते की धूल में सन चुकी थी। पिछली सीट पर बंधे सामान के साथ सुकून के उन लम्हों से हम वापस उस आपाधापी और भीड़ का फिर से हिस्सा बनने जा रहे थे।
उस भीड़ में ,जिस भीड़ का कोई चेहरा नहीं…जो भीड़ भाग रही है, दिन रात वो पाने के लिए जो वो ख़ुद नहीं जानती कि कुछ है भी या नहीं! वो भीड़ जिस भीड़ में घुसते ही आप ना चाहते हुए भी उस भीड़ का हिस्सा बन जाते है और एक मशीनी दुनिया में क़ाबिज़ हो जाते है एक रोबोट की तरह! काम, काम बस काम! इसलिए अक्सर कहता आया हूँ,यात्रायें ज़रूरी है।इस भीड़ से ख़ुद को अलग करने के लिए…कुछ दिनों के लिए ही सही। यात्रायें ज़रूरी है ख़ुद को ढूँढने के लिए।यात्रायें ज़रूरी है ख़ुद को ख़ुद से मिलाने के लिए…
Amazing 😍
जवाब देंहटाएंबहुत खूब🤩, आपके लेखन ने मन को तरो-ताजा कर दिया।🫠💐
जवाब देंहटाएं👍
जवाब देंहटाएंबेहद सुंदर संस्मरण सर 🌿 यात्राएं करते हुए लोग प्यारे लगते हैं.बस यात्रायें ही हैं जो हमारे हिस्से में मौजूद होती हैं अंत तक.. मुझे भी बेदिनी बुग्याल की यात्रा मानसून के बाद करना है...
जवाब देंहटाएंसर बेहद बेहतरीन लिखते हैं आप..🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर यात्रा वृत्तांत है सर, आजकल ऐसा यात्रा वृत्तांत काफी लंबे समय बाद पड़ने को मिला..🙏🌸
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