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प्रोफ़ेसर की डायरी: उच्च शिक्षा में वैचारिकता का खेल

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प्रोफ़ेसर की डायरी नोट: यह किताब की समीक्षा क़तई नहीं है। अख़िरकार पढ़ ली। फ़ेसबुक पर ही एक लेख भी देखा कि डॉo लक्ष्मण यादव की किताब प्रोफ़ेसर की डायरी इन दिनों अमेज़न पर सभी भारतीय भाषाओं में बेस्ट्सेलर बनी हुई है, इसमें कोई संदेह करने लायक़ बात है भी नहीं! डॉo लक्ष्मण को काफ़ी समय से सुन रहा हूँ। सामाजिक न्याय पर कई विद्वानों से 'परिचय' उन्हीं को देखकर हुआ है। किताब उन्हीं के संस्मरणों पर आधारित है इसलिए भाषा में कोई बनावटीपन नहीं, एकदम सहज और सरल। किताब का इंतज़ार इस कदर था कि कॉलेज के बैग में रखकर, थोड़ा-थोड़ा वहाँ भी पढ़ लिया; हालाँकि ये आदतन है कि अपने विषयों की किताबों,नोट्स, लैपटॉप के इतर बैग में हमेशा कोई 'विषय से इतर किताब’ हमेशा होती ही है।जहां समय मिला कुछ अंश ही पढ़ लिये। बहरहाल, किताब में हालाँकि जो उच्च शिक्षा के तिलिस्म से अंजान लोग है, उन्हें कई मायनों में यह किताब; जो डॉo लक्ष्मण की डायरी के नोट्स है; उन्हें देश-प्रदेश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में फल फूल रहें रहे जातिवाद, विरोधी स्वरों को दबाने, एक ही वैचारिकता को गोबर खाद देकर पालने और तार्किकता और वैच

Water droplets: the science behind this beauty!

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       उपरोक्त फोटो अगर आपको सुंदर लग रही है तो आइए इसके पीछे का विज्ञान भी समझे।प्रकृति ऐसे खूबसूरत दृश्यों से भरी हुई है पर इसके पीछे का विज्ञान कहीं और ज़्यादा ख़ूबसूरत है।आपने अक्सर गौर किया होगा कि, मकड़ी के जालों, या आजकल ठंडियों में पत्तियों के ऊपर दिखने वाली ओस की बूँदे गोल ही क्यों होती हैं? वे लंबी, चपटी या डिब्बेनुमा क्यों नहीं होती?  तो इसका जवाब है- पृष्ट तनाव( Surface Tension)।आइये पृष्ट तनाव को समझते है।आपने ग़ौर किया होगा कि अगर हम एक रंग भरने वाली कूची( Paint brush) को जब पानी के भीतर डुबाते है तो वो फैल जाती है, जबकि जैसे ही उसे बाहर निकालते है, पूरी कूची के बाल आपस में चिपक जाते है और ख़ुद को आपस में समेट लेते है। आइये एक पानी की गोल बूँद के बारे में सोचे,जैसा ऊपर पत्तियों में दिख रही है।बूँद के भीतर पानी है और बाहर केवल हवा।कल्पना कीजिए कि पानी के भीतर पानी का एक अणु जैसे कोई खूब सारे हाथों वाला जानवर हो! वो अपने सारे हाथों से बाक़ी को पकड़ कर खींच रहा हो।ऐसे उस बूँद के भीतर के सभी कण एक दूसरे को खींचेंगे।पर जो कण सतह( surface) पर होंगे वो अंदर वालों को तो खींचेंगे

जीवन के मायने क्या?

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  जाड़ों  में इंसान ही नहीं, जानवर और पक्षी जगत भी सुबह की नर्म धूप के लिए आतुर रहता है।जंगल बाब्लर आजकल घरों के आस पास ख़ूब दिखाई देने लगी है।और ये झुंड में रहती है।या तो छोटे पेड़ो पर फ़ुरसत से या फिर जमीन में कुछ ढूँढते-खोजते आपको दिखाई देगी। पर इन पक्षियों से इंसान क्या सीख सकता है? जवाब-जीवंतता। गुलज़ार साहब की लिखी एक बेहतरीन नज़्म की लाइनें कुछ यूँ है-" ज़िंदगी क्या है जानने के लिए…ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है।"केवल साँसें लेना भर जीना नहीं कहा जा सकता,न कहा जाना चाहिए। हम इंसान अपने वर्तमान को ना सोच, भविष्य के लिए परेशान रहते हैं।इसमें अधिकांश लोग यही 'ज़िंदा रहना' भूल जाते है।एक मशीनी जीवन बनकर वही रोज़ के कामों में घिसते है और उनकी कहानी भी ऐसे ही किसी रोज़ एकाएक ख़त्म हो जाती है। अंग्रेज़ी के लेखक फ़्रेंज़ काफ़्का ने Existentialism के भाव पर अपना मशहूर उपन्यास ‘Metamorphosis' लिखा। जिसमें इंसानी यांत्रिक जीवन को ही केंद्र पर रखा गया है। दूसरों  की, जिसमें अपने करीबी भी शामिल है; उनकी ख्वाहिशें पूरी करते करते कब हम जीना बंद कर एक यांत्रिक जीवन जीना शुरू क

A gentle reply to Journalist Tavleen Singh

  ट्विटर पर यह वीडियो देखने को मिला, जज साहब की टिप्पणी के बाद वहाँ, आम जनों के ठहाके सुनिए…किसी भी व्यक्ति का मोराल क्या ऐसे ही नहीं तोड़ा जाता…दिन-ब-दिन…अफ़सोस है कि यह होता आया है। रविवार के इण्डियन एक्सप्रेस में ओपिनियन सेक्शन में 'पत्रकार' तवलीन सिंह का लेख छपा था-" Time to end reservations" इस लेख से उनके पत्रकार कम और 'सिल्वर स्पून परवरिश' की झलक और एक मनुवादी नज़रिया ज़्यादा दिख रहा है।जातिगत हिंसाओं पर तवलीन सिंह ने कभी कोई कॉलम लिखा है मेरी नज़र में तो नहीं है।उनके ताज़ा लेख के    पीछे उनका क्या रिसर्च या डेटाबेस रहा है, मेरी समझ से बाहर है।उन्हीं के शब्दों में अब सारे तरह के आरक्षणों को ख़त्म कर देना चाहिए, वो अपने लेख में डॉo अंबेडकर का भी ज़िक्र करती है।जिसके हिसाब से हर दस वर्ष में आरक्षण की पुनः समीक्षा की जानी चाहिए, पहली बात तो यह है कि, सामाजिक आरक्षण और राजनैतिक आरक्षण में वो शायद फ़र्क़ नहीं समझती या समझना नहीं चाहती।दूसरा उन्हें लगता है कि बाबासाहब अंबेडकर के आरक्षण के पक्ष में जो तर्क या विचार थे वे पूरे हो चुके है और समाज इतना समरस हो चु

अमिट स्याही ( Indelible Ink)

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  अमिट स्याही( Indelible Ink) 7 नवम्बर को हुए विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव में अपनी ड्यूटी के दौरान आख़िर में स्याही की वॉयल बंद करते वक़्त ढक्कन में लगी स्याही मेरे हाथों पर अपनी पहचान गढ़ गई।इसलिए सोचा कि इससे जुड़ी जानकारी साँझा की जाये। इस स्याही का पूरा रासायनिक फ़ार्मूला किसी को नहीं पता सिवाय सीएसइआर(CSIR) के। बस इतना पता है कि इसमें सिल्वर नाइट्रेट (AgNO3) होता है।यह यौगिक फोटोसेंसिटिव होता है, यानी धूप में आते ही इसमें कुछ रासायनिक बदलाव होते है।इसीलिए चुनाव की स्याही लगने के बाद आपने इसके रंग में बैंगनी से इसे गहरा होता देखा होगा।तक़रीबन 35 से ज़्यादा देशों में इसका निर्यात किया जाता है जिसमें हमारे पड़ोसी देश भी शामिल है।लगभग 10 दिन तक किसी भी रसायन से इसे साफ़ नहीं किया जा सकता उसके बाद ये ख़ुद फ़ीकी होने लगती है। अगर इसके इतिहास पर नज़र डालें तो, पहले सामान्य चुनावों(1951-52) के दौरान कई लोगों के एक से अधिक बार वोट डालने की धांधली सामने आई।इसी के एवज़ चुनाव आयोग ने National Physical Laboratory(NPL) Delhi, से इस बात की माँग की, कि कुछ ऐसा बनाया जाये जिससे ये समस्या ठीक ह

वर्ष 2023 का भौतिकी का नोबेल पुरुस्कार

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  वर्ष 2023 का भौतिकी का नोबेल पुरूस्कार  वर्ष 2023 का भौतिकी का नोबेल पियर अगस्टिनी,फेरेन क्राओज़ और ऐनी हुईलिये को प्रकाशिकी के क्षेत्र में atto second light pulse के प्रायोगिक निर्माण के लिए दिया गया, जिसकी मदद से पदार्थ में इलेक्ट्रॉनों की गति को ज़्यादा बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है। 1 atto second    हमारी सामान्य घड़ियों में अल्पतमांक (least count) 1 सेकंड का अरबवें का भी अरबवाँ हिस्सा है (10^-18 sec)। इससे समझा जा सकता है विज्ञान किस स्तर पर ख़ुद को पहुँचा चुका है। इतने छोटे समय के लिए प्रकाश के पल्स को निर्मित करना विज्ञान के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। इलेक्ट्रान एक मूलभूत कण है और लगभग हर वैज्ञानिक घटना में सूक्ष्मतम् स्तर पर इलेक्ट्रॉन ही ज़िम्मेदार है। तो प्रकृति और पदार्थ की समझ के लिए इलेक्ट्रान के व्यवहार को समझना ज़रूरी है और क्योंकि परमाणु के भीतर कक्षाओं में इलेक्ट्रॉन का आवागमन बहुत तेज़ी से होता है और अत्यधिक गति के कारण हाइजनबर्ग के अनिश्चितता सिद्धांत के एवज़ इसकी सही स्थिति जानना असंभव है, इसलिए सूक्ष्म समय के लिए उत्पन्न प्रकाश इसमें एक प्रोब ( सूचना ले जाने और ला

Hard work always pay off!

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मेहनत का कोई पर्याय नहीं होता। मेहनत करनी है इससे ज़्यादा ये मायने रखता है कि मेहनत कब करनी है।बहुत गरीब और निरक्षर घरों से निकले दो युवा लड़कों की कहानी मैं आपको आज सुना रहा हूँ।दोनों को मैं निजी तौर पर  थोड़ा सा जानता हूँ।दोनों के गाँव ऐसी जगह हैं जहां पर आज भी सड़क नहीं पहुँची है।ज़िला मुख्यालय से दूरस्थ गाँवों के ये दो युवा अपने परिवारों की पहली पीढ़ी है, जो सरकारी नौकरी तक पहुँचे है।जब दोनों से मैं मिला था वर्ष 2012 में, उस समय मेरी तरह किराए पर मेरे बग़ल के कमरे पर आए और मौज मस्ती में ही दिखते थे पर उसके बाद जो उन्होंने अपने संघर्ष की दास्तान लिखी है, उसे मैं निजी तौर पर एक बड़ी उपलब्धि मानता हूँ।दोनों की कहानियाँ अपनी ज़ुबानी सुना रहा हूँ। 1.रवि रवि के पिता का देहांत बचपन में हो चुका था, वो बताया करता था कि उसे याद नहीं अपने पिता की, कि उनका चेहरा देखा हो।उस समय वो गुज़र चुके थे।बड़े भाई अपनी बारहवीं करने के बाद ही प्राइवेट नौकरी करने चले गये।रवि ने अपनी पढ़ाई गाँव के प्राइमरी स्कूल से शुरू की जो कि (प्राo विo पइयाँ) जो कि गाँव से 3-4 Kms दूर था।कक्षा दसवीं राoउo माo विo अमस्यार