एक पहाड़ी गाँव की लड़की
ऊपर तस्वीर हर पहाड़ी गाँव की हर लड़की का बिंब है।इसलिए नाम या जगह लिखने की कोई वजह मेरे पास नहीं है। “बेटी का सबसे पहला हक़ हम खा जाते है, वो है उसके पैदा होने की ख़ुशी” उर्दू के बेबाक़ लेखक सआदत हसन मंटो कि ये पंक्तियाँ देश के लगभग हर समाज (शायद उत्तर पूर्व में ना हो) में सटीक बैठती है। ये बात शत प्रतिशत सही न भी हो पर ज्यादा हिस्सा इस बात से इनकार नहीं कर सकता। अपनी लेखनी से मंटो, इस्मत चुगताई, प्रेमचंद और मन्नू भंडारी जैसे लेखकों ने महिलाओं के दर्द को जगज़ाहिर किया।पहाड़ की बात करूँ तो हिमांशु जोशी जी के उपन्यास ‘ कगार की आग’ में पार्वती को पढ़कर किसके आंसू नहीं गिरे होंगे? यदि महिला है तो उसका जीवन परेशानी का सबब है और अगर वो दलित महिला है तो ये परेशानी अंतहीन हो जाती है, जो पार्वती का किरदार भी दिखाता है। पहाड़ में एक लड़की की ज़िंदगी एक आम लड़की से कहीं ज़्यादा चुनौती वाली है।अब लगभग हर घर में या गाँव में नल लग चुके है, पर आज से 5-6 साल पहले तक पानी नौले या धारे से लाना होता था, जो काम माँओं का या बेटियों के सर ही होता था। उसके बाद खाने की जुगत में माँ का हाथ बँटाना फिर अपने