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एक पहाड़ी गाँव की लड़की

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 ऊपर तस्वीर हर पहाड़ी गाँव की हर लड़की का बिंब है।इसलिए नाम या जगह लिखने की कोई वजह मेरे पास नहीं है।  “बेटी का सबसे पहला हक़ हम खा जाते है, वो है उसके पैदा होने की ख़ुशी” उर्दू के  बेबाक़ लेखक सआदत हसन मंटो कि ये पंक्तियाँ देश के लगभग हर समाज (शायद उत्तर पूर्व में ना हो)  में सटीक बैठती है। ये बात शत प्रतिशत सही न भी हो पर ज्यादा हिस्सा इस बात से इनकार नहीं कर सकता। अपनी लेखनी से  मंटो, इस्मत चुगताई, प्रेमचंद और मन्नू भंडारी जैसे लेखकों ने महिलाओं के दर्द को जगज़ाहिर किया।पहाड़ की बात करूँ तो हिमांशु जोशी जी के उपन्यास ‘ कगार की आग’ में पार्वती को पढ़कर किसके आंसू नहीं गिरे होंगे? यदि महिला है तो उसका जीवन परेशानी का सबब है और अगर वो दलित महिला है तो ये परेशानी अंतहीन हो जाती है, जो पार्वती का किरदार भी दिखाता है। पहाड़ में एक लड़की की ज़िंदगी एक आम लड़की से कहीं ज़्यादा चुनौती वाली है।अब लगभग हर घर में या गाँव में नल लग चुके है, पर आज से 5-6 साल पहले तक पानी नौले या धारे से लाना होता था, जो काम माँओं का या बेटियों के सर ही होता था। उसके बाद खाने की जुगत में माँ का हाथ बँटाना फिर अपने

जितनी मिट्टी, उतना सोना- किताब समीक्षा

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  जितनी मिट्टी, उतना सोना…लपूझन्ना और तारीख़ में औरत सरीखी किताबों के लेखक अशोक पाण्डे जी की किताब है, जिसे हिन्द युग्म ने प्रकाशित किया है और क़ीमत 249 रुपये मात्र है।( किताब के डेटा के हिसाब से मात्र शब्द जानबूझकर लगाया है) धारचूला में तीनों घाटियों- दारमा, व्यास और चौदास में रं समाज पर केंद्रित यह किताब, बहुत तफ़सील से नहीं पर अच्छे ख़ासे ब्यौरे के साथ आपको इस समाज की जीवनशैली, संस्कृति, पूजा पद्धतियों,ढेरों मिथकों,उनकी कहानियों से रूबरू करवाती है। किताब पढ़ने से पहले मेरी ये राय है, आख़िरी पन्ने में हमारे मित्र विनोद उप्रेती जी द्वारा बनाये गये इन तीनों घाटियों के नक़्शे को ज़रूर देख लें, इससे लगभग 25 साल पहले की अकादमिक यात्रा पर निकलें, अशोक और ऑस्ट्रियन शोधार्थी सबीने के साथ आप ख़ुद को भी कदम दर कदम रास्तों पर पायेंगे। अशोक जी का लेखन कितना आसान और मनोरंजक होता है ये लपूझन्ना पढ़े पाठक बख़ूबी जानते है! जिन्हें नहीं पता वो भी ये समझ लें, कि आपका कोई बढ़िया दोस्त आपको कहीं का कोई क़िस्सा सुना रहा है। ये किताब आपको पिथौरागढ़ में धारचूला से आगे पहले दारमा घाटी यानी, दर,सोबला, नागलिं

Gwaldam- a town amidst the Deodar Forest

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    बागेश्वर जिले (कुमाऊँ) से लगते चमोली जिले(गढ़वाल) का पहला क़स्बा- ग्वालदम। चमोली जिला मुख्यालय से इसकी दूरी 126 Kms है जबकि अगर बागेश्वर से देखें तो ये दूरी केवल 40 Kms है इसलिए इस क़स्बे के लिए बाज़ार बागेश्वर या गरुड़ ज़्यादा मुफ़ीद है। 1960 Mts की ऊँचाई पर स्थित ये क़स्बा जून के महीने में भी, आपको दिसंबर की ठंड के दर्शन करवा सकता है। सामने त्रिशूल (7120Mts) और नंदा घूँटी(6309 Mts) पर्वत की सफ़ेद चोटिया सामने दिख जायेंगी, अगर क़िस्मत में साफ़ मौसम हो तो! ख़ूबसूरती से लबरेज़ ये छोटा सा क़स्बा बड़े छोटे से हिस्से में देवदार के जंगल, प्राकृतिक तालाब और गढ़वाली-कुमाउनीं संस्कृति से महदूद है, जिसमें क़स्बे से 1 Kms आगे जाकर आपको मार्छा या भोटिया जनजाति की झलक भी मिल जाएगी।शायद ही ऐसा कोई साल हो जब यहाँ बर्फ़ अपनी दस्तक ना दे! यहाँ सबसे खूबसूरत जगह जो आपको लगेगी वो है, ग्वालदम के नये बाज़ार में मौजूद, प्राकृतिक तालाब जिसका हरा पानी और उसमे तैरती लाल मछलियाँ आपको ज़रूर सम्मोहित करेंगी।  मैंती आंदोलन, जो कि राजकीय इंटर कॉलेज ग्वालदम के एक शिक्षक श्री कल्याण सिंह रावत जी के द्वारा शुरू किय

Lakhudiyar Caves- A Paleolithic age Caves In AlmoraUttarakhand

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ज़िला मुख्यालय अल्मोडा से  लगभग 16-17 Kms, NH-309B (पिथौरागढ़ की ओर) बढ़ने पर पर चितई मंदिर से आगे सड़क के पास ही दाहिने हाथ पर आपको यह बोर्ड दिख जाएगा। यह सुयाल नदी के किनारे पर है, जो एक छोटी नदी है। होने को ASI के दायरे में ये जगह है पर ख़्याल रखने वाला कोई दिखता नहीं! गुजरते हुए, जब लखुडियार की ओर से आते हुए एक परिवार से मैंने पूछा, कितनी दूरी पर है? मैं जानता था पर बस अनायास ये मुँह से निकल पड़ा तो जवाब था, “पता नहीं भाईसाहब।”  जबकि ये गुफा भित्तिचित्र( Cave rock paintings) सड़क से महज़ कुछ कदमों की दूरी पर है! वो परिवार उसी के ऊपर बैठकर शायद पिकनिक मनाकर आ रहा था।लेकिन उन चित्रों से मुख़ातिब नही था।पुरा-पाषाण(paleolithic) दौर में आदिमानव वहाँ रहने की तलाश में गया होगा, आधुनिक दौर में लोग मौजमस्ती के लिए। भारत में इतिहास की किताबों में हम भीमबेटका (मध्य प्रदेश) में भित्ति चित्रों के बारे में पढ़ा है , कक्षा 11 की NCERT की Fine Arts की किताब में  लखुडियार का ज़िक्र है। पर अल्मोडा के लोगो को भी इसके बारे में ज़्यादा पता या रुचि नहीं है। बिल्कुल ऐसे ही भित्ति चित्र आपको अल्मोडा में ह

कीड़ाजड़ी(अनिल यादव)- Book Review

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 कीड़ाजड़ी लगभग एक महीने पहले प्रकाशित हुई अनिल यादव जी की किताब है।अनिल जी का परिचय ‘वह भी कोई देस है महराज’ से भी लोगो को हो सकता है। यह एक ट्रैवलॉग है, जिसमें लेखक पिंडर घाटी में जैकुनी और खाती में रहते हुए वहाँ आम लोगो के जीवन, जीवन शैली, उनकी संस्कृति, पर्यटन से लेकर अपने अनुभवों को साझा करते दिखते है। क्योंकि मैं ख़ुद इसी साल जून में पिंडारी ग्लेशियर गया था इसलिए इसे पढ़ते वक़्त मेरे दिमाग़ में वो जगह, लोग,  वहाँ का कठोर जीवन और सामने दिखती ‘मैकतोली का धवल शिखर’ मेरे दिमाग़ में अपनी स्पष्ट छवि बनाए था। एक एनजीओ के द्वारा वहाँ बाक़ी अन्य सदस्यों के साथ लेखक का वहाँ आना, उनके बीच अच्छा ख़ासा वक़्त बिताना ख़ासकर पुराने लोगो, नई पीढ़ी और युवाओं,जो पोर्टर के साथ साथ कीड़ाजड़ी निकालने का काम भी बख़ूबी करते है किताब में अच्छा ख़ासा स्पेस रखती है। अंकित 190 पन्नों में पहली बार कीड़ाजड़ी शब्द पेज संख्या 102 पर आता है, जिसके बाद उच्च हिमालयी क्षेत्रों में उसका पैदा होना,उसके पीछे का विज्ञान,बड़ा होना और उसका दोहन…दोहन के लिए क्षेत्रों का बँटवारा, कीड़ाजड़ी का पूरा इतिहास, कैसे यह तिब्बती च

Savitribai Phule: India’s First Female Teacher

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  जिस उम्र में आज लड़कियाँ अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाती, उस उम्र में सावित्रीबाई फुले ने ब्राह्मणवादी सोच के घोर विरोध के बावजूद, बालिकाओं को पढ़ाना शुरू कर दिया था।   “ हम भी दरिया है हमें अपना हुनर मालूम है…जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे,रास्ता हो जाएगा” बशीर बद्र जी ने ये नज़्म, क्या सोच के लिखी होगी, कह नहीं सकता…पर हर दौर में सावित्रीबाई जैसी शख़्सियतों के लिए ये मौजूँ है।   हमारे घरों में कपोल कल्पित देवियों की असंख्य तस्वीरे दीवारों पर दस्तक देती है, पर सही मायनों में जिस महिला की पूजा की जानी चाहिए उसका नाम तक आज महिलायें और छात्रायें तक नहीं जानती है।उसका एक कारण यह कि एक तो इतिहास ने महिलाओं को कभी बतौर नायक, एक तख़्त देना गवारा समझा नहीं…ऊपर से यदि वो निचले तबके से आती हो तो फिर तो क्या ही कहें!   3 जनवरी 1831 को जन्मी इस महिला का महज़ 9 साल की उम्र में सावित्रीबाई फुले का विवाह, ज्योतिबाफुले से हुआ। वही ज्योतिबा जिन्हें डॉ अंबेडकर ने अपना गुरु माना और गुलामगिरि जैसी क़िताब लिखी। क्योंकि ज्योतिबा समझ चुके थे कि आगे बढ़ने का रास्ता केवल शिक्षा की सड़क से होकर जाएगा…तो उन्होंने शाद